अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 36/ मन्त्र 9
सूक्त - चातनः
देवता - सत्यौजा अग्निः
छन्दः - भुरिगनुष्टुप्
सूक्तम् - सत्यौजा अग्नि सूक्त
ये मा॑ क्रो॒धय॑न्ति लपि॒ता ह॒स्तिनं॑ म॒शका॑ इव। तान॒हं म॑न्ये॒ दुर्हि॑ता॒ञ्जने॒ अल्प॑शयूनिव ॥
स्वर सहित पद पाठये । मा॒ । क्रो॒धय॑न्ति । ल॒पि॒ता: । ह॒स्तिन॑म्। म॒शका॑:ऽइव । तान् । अ॒हम् । म॒न्ये॒ । दु:ऽहि॑तान् । जने॑ । अल्प॑शयून्ऽइव॥३६.९॥
स्वर रहित मन्त्र
ये मा क्रोधयन्ति लपिता हस्तिनं मशका इव। तानहं मन्ये दुर्हिताञ्जने अल्पशयूनिव ॥
स्वर रहित पद पाठये । मा । क्रोधयन्ति । लपिता: । हस्तिनम्। मशका:ऽइव । तान् । अहम् । मन्ये । दु:ऽहितान् । जने । अल्पशयून्ऽइव॥३६.९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 36; मन्त्र » 9
विषय - जन-मार्ग से पिशाचों को दूर करना
पदार्थ -
१. राजा कहता है कि (ये) = जो पिशाच (लपिता:) = व्यर्थ बकवास करनेवाले होते हुए-झूठ के द्वारा अपने अपराध को छिपाने का प्रयत्न करते हुए (मा क्रोधयन्ति) = मुझे क्रुद्ध कर देते हैं, उसी प्रकार (इव) = जैसेकि (मशका:) = शब्द करते हुए मच्छर (हस्तिनम्) = हाथी को, (तान्) = उन्हें (अहम्) = मैं (दुर्हितान् मन्ये) = लोक में दुःख बढ़ानेवाला-अस्थान में स्थित [दुर् हित] (मन्ये) = मानता हूँ। २. (जने) = जनसंघ में-जनसमूह के सञ्चरण स्थल में अवस्थित (अल्पशयून् इव) = अल्पकाय शयनस्वभाव [संचार-अक्षम] कीटों की भाँति मैं उन्हें मार्ग से हटाने योग्य ही समझता हूँ। ये पिशाच लोक-व्यवहार में विघ्नरूप ही होते हैं। इन्हें दूर करना नितान्त आवश्यक होता है।
भावार्थ -
झूठे, चोर, ऊटपटौंग बातें बनानेवाले व्यक्ति राजा के क्रोध के पात्र होते हैं। राजा इन्हें प्रजा के मार्ग से हटा देना आवश्यक समझता है।
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