अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 36/ मन्त्र 5
सूक्त - चातनः
देवता - सत्यौजा अग्निः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - सत्यौजा अग्नि सूक्त
ये दे॒वास्तेन॒ हास॑न्ते॒ सूर्ये॑ण मिमते ज॒वम्। न॒दीषु॒ पर्व॑तेषु॒ ये सं तैः प॒शुभि॑र्विदे ॥
स्वर सहित पद पाठये । दे॒वा: । तेन॑ । हास॑न्ते । सूर्ये॑ण । मि॒म॒ते॒ । ज॒वम् । न॒दीषु॑ । पर्व॑तेषु । ये । सम् । तै: । प॒शुऽभि॑: । वि॒दे॒ ॥३६.५॥
स्वर रहित मन्त्र
ये देवास्तेन हासन्ते सूर्येण मिमते जवम्। नदीषु पर्वतेषु ये सं तैः पशुभिर्विदे ॥
स्वर रहित पद पाठये । देवा: । तेन । हासन्ते । सूर्येण । मिमते । जवम् । नदीषु । पर्वतेषु । ये । सम् । तै: । पशुऽभि: । विदे ॥३६.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 36; मन्त्र » 5
विषय - देवों व पशुओं का भी रक्षण
पदार्थ -
१. राजा कहता है कि ये (देवा:) = राष्ट्र में देववृत्ति के जो पुरुष (तेन) = गतमन्त्र में वर्णित पिशाचों से (हासन्ते) = [जिहास्यते-सा०] धन आदि से पृथक् किये जाते हैं, (सूर्येण जवं मिमते) = जो देववृत्ति के पुरुष सूर्य के साथ वेग को मापते है, अर्थात् सूर्योदय से सूर्यास्त तक कर्तव्यकर्मों में लगे रहते हैं, (तै:) = उनके साथ (संविदे) = संज्ञानवाला होता हूँ, उनसे सब बात जानकर दुष्टों को दण्ड देने के लिए यत्नशील होता हूँ। २. (नदीषु पर्वतेषु) = नदियों पर या पर्वतों पर ये-जो पशु विचरते हैं (तैः पशुभिः) = उन पशुओं के साथ भी, उनके निरोधक राक्षसों को नष्ट करके, संज्ञानवाला होता है, उन्हें सम्यक् प्राप्त करता हूँ।
भावार्थ -
राजा को केवल देवों का ही रक्षण नहीं करना, अपितु नदी-तटों व पर्वतों पर संचरण करनेवाले पशुओं का भी रक्षण करना है।
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