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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 36

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 36/ मन्त्र 3
    सूक्त - चातनः देवता - सत्यौजा अग्निः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - सत्यौजा अग्नि सूक्त

    य आ॑ग॒रे मृ॒गय॑न्ते प्रतिक्रो॒शेऽमा॑वा॒स्ये॑। क्र॒व्यादो॑ अ॒न्यान्दिप्स॑तः॒ सर्वां॒स्तान्त्सह॑सा सहे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये । आ॒ऽग॒रे । मृ॒गय॑न्ते । प्र॒ति॒ऽक्रो॒शे । अ॒मा॒ऽवा॒स्ये᳡ ।क्र॒व्य॒ऽअद॑: । अ॒न्यान् । दिप्स॑त: । सर्वा॑न् । तान् । सह॑सा । स॒हे॒ ॥३६.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    य आगरे मृगयन्ते प्रतिक्रोशेऽमावास्ये। क्रव्यादो अन्यान्दिप्सतः सर्वांस्तान्त्सहसा सहे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ये । आऽगरे । मृगयन्ते । प्रतिऽक्रोशे । अमाऽवास्ये ।क्रव्यऽअद: । अन्यान् । दिप्सत: । सर्वान् । तान् । सहसा । सहे ॥३६.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 36; मन्त्र » 3

    पदार्थ -

    १. (ये) = जो हमें आगरे [आ गीर्यते समन्ताद् युज्यते अत्र] भोजनालय [Hotel] में (मृगयन्ते) = मारने के लिए ढूंढते फिरते हैं, प्रतिकोशे-प्रतिकूल शत्रुओं से किये हुए आक्रोश के अवसर पर-कलह के अवसर पर (अमावास्ये) = अमावास्या की रात्रि में अन्धकार में मारने के लिए खोजते फिरते हैं, इन (व्यादः) = मांसभोजी (अन्यान् दिप्सतः) = औरों को मारने की इच्छा करनेवाले (तान् सर्वान)  उन सबको (सहसा) = शत्रुमर्षक बल के द्वारा (सहे) = पराभूत करता हूँ।

    भावार्थ -

    भोजनालयों में, कलहों के अवसर पर, अन्धकारमयी रात्रि में जो औरों को मारने की इच्छा करते हैं, 'वैश्वानर अग्नि' उन सबको बल से पराभूत करें।

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