अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 36/ मन्त्र 7
सूक्त - चातनः
देवता - सत्यौजा अग्निः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - सत्यौजा अग्नि सूक्त
न पि॑शा॒चैः सं श॑क्नोमि॒ न स्ते॒नैर्न व॑न॒र्गुभिः॑। पि॑शा॒चास्तस्मा॑न्नश्यन्ति॒ यम॒हं ग्राम॑मावि॒शे ॥
स्वर सहित पद पाठन । पि॒शा॒चै: । सम् । श॒क्नो॒मि॒ । न । स्ते॒नै: । न । व॒न॒र्गुऽभि॑: ।पि॒शा॒चा: । तस्मा॑त् । न॒श्य॒न्ति॒ । यम् । अ॒हम् । ग्राम॑म् । आ॒ऽवि॒शे ॥३६.७॥
स्वर रहित मन्त्र
न पिशाचैः सं शक्नोमि न स्तेनैर्न वनर्गुभिः। पिशाचास्तस्मान्नश्यन्ति यमहं ग्राममाविशे ॥
स्वर रहित पद पाठन । पिशाचै: । सम् । शक्नोमि । न । स्तेनै: । न । वनर्गुऽभि: ।पिशाचा: । तस्मात् । नश्यन्ति । यम् । अहम् । ग्रामम् । आऽविशे ॥३६.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 36; मन्त्र » 7
विषय - पिशाच-पलायन
पदार्थ -
१. राजा कहता है कि मैं (पिशाचैः) = औरों का मांस खानेवाले राक्षसों के साथ (न संशक्नोमि) = किसी प्रकार से मेल नहीं कर सकता- इन्हें कठोर दण्ड देता हूँ, स्तेनैः न-चोरों के साथ भी मेल नहीं कर सकता और न-न ही वनभि:-वनगामी डाकुओं के साथ मेल कर सकता हूँ। २. मैं (यम्) = जिस भी (ग्रामम् आविशे) = ग्राम में प्रवेश करता हूँ (तस्मात्) = उस ग्राम से (पिशाचा: नश्यन्ति) = पिशाच नष्ट हो जाते हैं।
भावार्थ -
राजशासन का सौन्दर्य यही है कि राष्ट्र से 'स्तेनों व वनर्गुओं' का नामोनिशान भी मिट जाए। राष्ट्र इनके उपद्रवों से रहित हो।
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