अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 36/ मन्त्र 2
सूक्त - चातनः
देवता - सत्यौजा अग्निः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - सत्यौजा अग्नि सूक्त
यो नो॑ दि॒प्सददि॑प्सतो॒ दिप्स॑तो॒ यश्च॒ दिप्स॑ति। वै॑श्वान॒रस्य॒ दंष्ट्र॑योर॒ग्नेरपि॑ दधामि॒ तम् ॥
स्वर सहित पद पाठय: । न॒: । दिप्सा॑त् । अदि॑प्सत: । दिप्स॑त: । य: । च॒ । दिप्स॑ति ।वै॒श्वा॒न॒रस्य॑ । दंष्ट्र॑यो: । अ॒ग्ने । अपि॑ । द॒धा॒मि॒ । तम् ॥३६.२॥
स्वर रहित मन्त्र
यो नो दिप्सददिप्सतो दिप्सतो यश्च दिप्सति। वैश्वानरस्य दंष्ट्रयोरग्नेरपि दधामि तम् ॥
स्वर रहित पद पाठय: । न: । दिप्सात् । अदिप्सत: । दिप्सत: । य: । च । दिप्सति ।वैश्वानरस्य । दंष्ट्रयो: । अग्ने । अपि । दधामि । तम् ॥३६.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 36; मन्त्र » 2
विषय - वैश्वानर अनि की दंष्ट्राओं में
पदार्थ -
१. (यः) = जो (अदिप्सत:) = हिंसित करना न चाहते हुए (न:) = हमें (दिप्सात्) = हिंसित करने की इच्छा करे (च) = और (यः) = जो (दिप्सतः) = अपराध करने पर हिंसित करने की कामनावाले राजपुरुषों को (दिप्सति:) = हिंसित करना चाहता है, अर्थात् जो राजपुरुषों [Police] पर ही आक्रमण कर देता है, (तम्) = उसे (वैश्वानरस्य) = सारे मानवसमाज का हित करनेवाले (अग्नेः) = राष्ट्र के अग्रणी राजा के (दंष्ट्रयो:) = दाढों में (अपिदधामि) = धारण करते हैं-उसे राजा के सुपुर्द करते हैं। वह राजा की न्यायदंष्ट्राओं से ही दण्डित होगा। २. न्याय को अपने हाथ में न लेकर अपराधी को राजा के न्यायालय को ही सौंपते हैं।
भावार्थ -
जो हिंसा न करनेवाले हमारी हिंसा करे अथवा जो न्याय को अपने हाथ में ले अथवा रक्षा-पुरुषों पर ही आक्रमण करे, उसे राजा के न्याय के जबड़ों में स्थापित करना ही उत्तम है।
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