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अथर्ववेद के काण्ड - 4 के सूक्त 36 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 36/ मन्त्र 5
    ऋषिः - चातनः देवता - सत्यौजा अग्निः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - सत्यौजा अग्नि सूक्त
    32

    ये दे॒वास्तेन॒ हास॑न्ते॒ सूर्ये॑ण मिमते ज॒वम्। न॒दीषु॒ पर्व॑तेषु॒ ये सं तैः प॒शुभि॑र्विदे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये । दे॒वा: । तेन॑ । हास॑न्ते । सूर्ये॑ण । मि॒म॒ते॒ । ज॒वम् । न॒दीषु॑ । पर्व॑तेषु । ये । सम् । तै: । प॒शुऽभि॑: । वि॒दे॒ ॥३६.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ये देवास्तेन हासन्ते सूर्येण मिमते जवम्। नदीषु पर्वतेषु ये सं तैः पशुभिर्विदे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ये । देवा: । तेन । हासन्ते । सूर्येण । मिमते । जवम् । नदीषु । पर्वतेषु । ये । सम् । तै: । पशुऽभि: । विदे ॥३६.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 36; मन्त्र » 5
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    हिन्दी (3)

    विषय

    राजा के धर्म का उपदेश।

    पदार्थ

    (ये) जो (देवाः) विजयी शूर (तेन) पुण्य के साथ (हासन्ते) चलना चाहते हैं, और (ये) जो (नदीषु पर्वतेषु) नदियों और पर्वतों पर (सूर्येण) सूर्य के साथ (जवम्) अपना वेग (मिमते) करते हैं (तैः) उन (पशुभिः) दृष्टिवाले देवताओं से (सम् विदे) मैं मिलता हूँ ॥५॥

    भावार्थ

    जो महात्मा लोग सूर्य के समान शीघ्रगामी होकर बड़े-बड़े कठिन कामों को सिद्ध करते हैं, उन से मिलकर सब मनुष्य उत्तम गुण प्राप्त करें ॥५॥

    टिप्पणी

    ५−(ये) (देवाः) विजिगीषवः शूराः (तेन) तॄ तरणे-ड। पुण्येन-इति शब्दकल्पद्रुमः (हासन्ते) ओहाङ् गतौ-सनि छान्दसं रूपम्। जिहासन्ते। गन्तुमिच्छन्ति (सूर्येण) आदित्येन (मिमते) माङ् माने-लट्। उपमया सादृश्येन कुर्वन्ति (जवम्) स्ववेगम् (नदीषु) (पर्वतेषु) गिरिषु (ये) (तैः) (पशुभिः) अ० २।२६।१। द्रष्टृभिर्देवैः (सम् विदे) संजाने। संगच्छे ॥

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    विषय

    देवों व पशुओं का भी रक्षण

    पदार्थ

    १. राजा कहता है कि ये (देवा:) = राष्ट्र में देववृत्ति के जो पुरुष (तेन) = गतमन्त्र में वर्णित पिशाचों से (हासन्ते) = [जिहास्यते-सा०] धन आदि से पृथक् किये जाते हैं, (सूर्येण जवं मिमते) = जो देववृत्ति के पुरुष सूर्य के साथ वेग को मापते है, अर्थात् सूर्योदय से सूर्यास्त तक कर्तव्यकर्मों में लगे रहते हैं, (तै:) = उनके साथ (संविदे) = संज्ञानवाला होता हूँ, उनसे सब बात जानकर दुष्टों को दण्ड देने के लिए यत्नशील होता हूँ। २. (नदीषु पर्वतेषु) = नदियों पर या पर्वतों पर ये-जो पशु विचरते हैं (तैः पशुभिः) = उन पशुओं के साथ भी, उनके निरोधक राक्षसों को नष्ट करके, संज्ञानवाला होता है, उन्हें सम्यक् प्राप्त करता हूँ।

    भावार्थ

    राजा को केवल देवों का ही रक्षण नहीं करना, अपितु नदी-तटों व पर्वतों पर संचरण करनेवाले पशुओं का भी रक्षण करना है।

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    भाषार्थ

    (ये) जो [हमारे] (देवाः) विजिगीषु सैनिक तथा सेनाधिकारी (सूर्येण) सूर्य के साथ (जवम्) निज वेग को (मिमते) मापते हैं, तुलना करते हैं (ये) जो महात्माजन (नदीषु) नदियों के तटों पर या नदियों के संगमों पर, (पर्वतेषु) और पर्वतों में [निवास करते हैं, उन्हें; (तेन) उस हमारे सेनापति के साथ-साथ [मन्त्र ४], (हासन्ते) शत्रु द्वारा कारित दुष्कृत्य अर्थात् 'प्रतिक्रोश' और मृगयण अर्थात् 'खोज' कर्म हैं, [मन्त्र ३] जोकि इन्हें उपहास कराने में प्रयोजक बने हैं, उनके होते भी मैं राष्ट्राग्रणी कहता हूँ कि मैं तो (तैः पशुभिः) उन नर पशुओं के साथ (सं विदे) संवेदन अर्थात् संज्ञान ऐकमत्य करता हूँ।

    टिप्पणी

    [जनम् मिमते= जो पदाति अतिशीघ्र वेगवाले हैं, या सूर्य के अथवा सूर्य की रश्मियों के समान अतिवेगवाले हैं, शीघ्रगामी विमानों द्वारा। नदीषु पर्वतेषु= यथा "उपह्वरे गिरीणां संगमे च नदीनाम्। धिया विप्रो अजायत" (यजु० २६।१५)। संविदे= यथा "संज्ञानं नं स्वेभिः संज्ञानमरणेभिः। संज्ञानमश्विना युवमिहास्मासु नि यच्छतम्" (अथर्व० ७।५२।१) संज्ञानम्= संवेदनम्, ऐकमत्यम्। अरणेभिः= शत्रुभिः। अश्विनौ= उभयपक्ष के प्रधानमन्त्री तथा सेनापति; प्रकरणानुसार। अरणेभिः जिनके साथ हमारी बोलचाल नहीं, अ+रण (शब्दे, भ्वादिः)। हासन्ते=‌ हासयन्ति१ उपहासयन्ति, उपहास कराने के कारण बनते हैं। शत्रु राजा के दुष्कृत्य हैं "अमावस्याकाल की रात्रि के घने अन्धकार में 'प्रतिक्रोश' तथा 'खोज' कराना। प्रतिक्रोश है प्रतिद्वन्द्विता-प्रदर्शक आक्रोश या नारे। देवा:= "दिवुक्रीडा-विजिगीषा-व्यवहार०" आदि (दिवादिः)।] [१. शत्रुपक्ष निर्बल है, और अस्मत्पक्ष प्रबल है। इसलिए शत्रु विजयाभिलाषा के निमित्त जो चालें चलता है उसके कृत्यों पर हमारे सैनिक आदि तथा महात्मा भी उपवास करते हैं, मखौल करते हैं।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    The Power of Truth

    Meaning

    Those noble people who feel satisfied and happy with that policy and programme, those dynamic people who measure the speed and success of the programme by the light of the sun, those that live by rivers and on the hills, with all these watchful people I meet and associate to seek their cooperation.

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    Translation

    The gamblers who hasten with (our cattle), and run away speedily with the coming, of the sun, to the rivers and mountains, I find out those cattle again.

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    Translation

    I gather information about the activities of such persons (as described in the preceding verses) with the learned spies who flee with them and match their rapid activity with the sun and who wonder on rivers and mountains and with the trained animals.

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    Translation

    I befriend those conquering heroes, who want to follow the path of virtue, and those wise sages, who match their rapid motion with the sun on rivers and mountains.

    Footnote

    Who match: Persons who sail swiftly on rivers, and fly swiftly on mountains like the Sun. I: A King.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५−(ये) (देवाः) विजिगीषवः शूराः (तेन) तॄ तरणे-ड। पुण्येन-इति शब्दकल्पद्रुमः (हासन्ते) ओहाङ् गतौ-सनि छान्दसं रूपम्। जिहासन्ते। गन्तुमिच्छन्ति (सूर्येण) आदित्येन (मिमते) माङ् माने-लट्। उपमया सादृश्येन कुर्वन्ति (जवम्) स्ववेगम् (नदीषु) (पर्वतेषु) गिरिषु (ये) (तैः) (पशुभिः) अ० २।२६।१। द्रष्टृभिर्देवैः (सम् विदे) संजाने। संगच्छे ॥

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