अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 35/ मन्त्र 3
सूक्त - प्रजापतिः
देवता - अतिमृत्युः
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
सूक्तम् - मृत्युसंतरण सूक्त
यो दा॒धार॑ पृथि॒वीं वि॒श्वभो॑जसं॒ यो अ॒न्तरि॑क्ष॒मापृ॑णा॒द्रसे॑न। यो अस्त॑भ्ना॒द्दिव॑मू॒र्ध्वो म॑हि॒म्ना ते॑नौद॒नेनाति॑ तराणि मृ॒त्युम् ॥
स्वर सहित पद पाठय: । दा॒धार॑ । पृ॒थि॒वीम् । वि॒श्वऽभो॑जसम् । य: । अ॒न्तरि॑क्षम् । आ॒ऽअपृ॑णात् । रसे॑न । य: । अस्त॑भ्नात् । दिव॑म् । ऊ॒र्ध्व: । म॒हि॒म्ना । तेन॑ । ओ॒द॒नेन॑ । अति॑ । त॒रा॒णि॒ । मृ॒त्युम् ॥३५.३॥
स्वर रहित मन्त्र
यो दाधार पृथिवीं विश्वभोजसं यो अन्तरिक्षमापृणाद्रसेन। यो अस्तभ्नाद्दिवमूर्ध्वो महिम्ना तेनौदनेनाति तराणि मृत्युम् ॥
स्वर रहित पद पाठय: । दाधार । पृथिवीम् । विश्वऽभोजसम् । य: । अन्तरिक्षम् । आऽअपृणात् । रसेन । य: । अस्तभ्नात् । दिवम् । ऊर्ध्व: । महिम्ना । तेन । ओदनेन । अति । तराणि । मृत्युम् ॥३५.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 35; मन्त्र » 3
विषय - नीरोगता, स्नेह, उच्च विचार
पदार्थ -
१. (य:) = जो ज्ञान-भोजन [ओदन] (विश्वभोजसम्) = सब अङ्ग-प्रत्यङ्गों का पालन करनेवाली (पृथिवीम्) = शरीररूपी पृथिवी को (दाधार) = धारण करता है, (य:) = जो ज्ञान (अन्तरिक्षम्) = हृदयान्तरिक्ष को (रसेन आपूणात्) = प्रेमरस से प्रपूरित करता है। ज्ञान के द्वारा खान-पान के ठीक होने से शरीर सुदृढ़ बना रहता है। इसीप्रकार राग-द्वेष से ऊपर उठकर हृदय से सबके प्रति स्नेहवाला होता
अथर्ववेदभाष्यम् है। २. (यः) = जो ज्ञान (महिम्ना) = अपनी महिमा से (दिवम् ऊर्ध्वा अस्तभ्नात) = मस्तिष्क को ऊपर थामता है, अर्थात् ज्ञान से मस्तिष्क बड़ी उन्नत स्थिति में बना रहता है। यह मस्तिष्क बड़े ऊँचे विचारों का स्रोत बनता है। (तेन ओदनेन) = उस ज्ञान-भोजन से (मृत्युम् अतितराणि) = मृत्यु को तैर जाऊँ। यह ज्ञान मुझे रोगों व जन्म-मरण के चक्र से बचानेवाला हो।
भावार्थ -
ज्ञान द्वारा शरीर नीरोग बनता है, हृदय स्नेहरस से परिपूर्ण होता है, मस्तिष्क उच्च विचारोंवाला बना रहता है।
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