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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 35

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 35/ मन्त्र 5
    सूक्त - प्रजापतिः देवता - अतिमृत्युः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - मृत्युसंतरण सूक्त

    यः प्रा॑ण॒दः प्रा॑ण॒दवा॑न्ब॒भूव॒ यस्मै॑ लो॒का घृ॒तव॑न्तः॒ क्षर॑न्ति। ज्योति॑ष्मतीः प्र॒दिशो॒ यस्य॒ सर्वा॒स्तेनौ॑द॒नेनाति॑ तराणि मृ॒त्युम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । प्रा॒ण॒द: । प्रा॒ण॒दऽवा॑न् । ब॒भूव॑ । यस्मै॑ । लो॒का: । घृ॒तऽव॑न्त: । क्षर॑न्ति । ज्योति॑ष्मती: । प्र॒ऽदिश॑: । यस्य॑ । सर्वा॑: । तेन॑ । ओ॒द॒नेन॑ । अति॑ । त॒रा॒णि॒ । मृ॒त्युम् ॥३५.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यः प्राणदः प्राणदवान्बभूव यस्मै लोका घृतवन्तः क्षरन्ति। ज्योतिष्मतीः प्रदिशो यस्य सर्वास्तेनौदनेनाति तराणि मृत्युम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । प्राणद: । प्राणदऽवान् । बभूव । यस्मै । लोका: । घृतऽवन्त: । क्षरन्ति । ज्योतिष्मती: । प्रऽदिश: । यस्य । सर्वा: । तेन । ओदनेन । अति । तराणि । मृत्युम् ॥३५.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 35; मन्त्र » 5

    पदार्थ -

    १. (यः प्राणदः) = जो ज्ञानरूप ओदन प्राणशक्ति देनेवाला है, (प्राणदवान् बभूव) = जो प्राणशक्ति के तत्त्वों को देनेवाला है-प्राणदोंवाला है। ज्ञान वासना' को दग्ध करके सौम [वीर्य] का रक्षण करता है। इस सोम में ही सब प्राणदायी तत्त्वों का निवास है। (यस्मै) = जिस ज्ञान के लिए (घृतवन्त:) = दीसिवाले (लोकाः) = लोक (क्षरन्ति) = सुत होते हैं, अर्थात् जिसके द्वारा दीसिमय लोकों में जन्म प्राप्त होता है। २. (यस्य) = जिस ज्ञानरूप ओदन की (सर्वाः प्रदिश:) = सब दिशाएँ (ज्योतिष्मती:) = प्रकाशमय होती है, अर्थात् जिस ज्ञान के होने पर जीवन के सब मार्ग प्रकाशमय हो जाते हैं हमें सदा कर्तव्यमार्ग दिखता है, (तेन ओदनेन) = उस ज्ञानरूप भोजन से (मृत्युम) = मृत्यु को (अतिताणि) = तैर जाऊँ।

    भावार्थ -

    ज्ञान वासनाओं को दग्ध करके प्राणशक्ति का रक्षण करता है। ज्ञान से दीप्तिमय लोकों की प्राप्ति होती है। ज्ञान से जीवन में कर्त्तव्यमार्ग दीखता है। इस ज्ञान से कर्तव्यों का पालन करते हुए हम मृत्यु से ऊपर उठे।

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