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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 35

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 35/ मन्त्र 6
    सूक्त - प्रजापतिः देवता - अतिमृत्युः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - मृत्युसंतरण सूक्त

    यस्मा॑त्प॒क्वाद॒मृतं॑ संब॒भूव॒ यो गा॑य॒त्र्या अधि॑पतिर्ब॒भूव॑। यस्मि॒न्वेदा॒ निहि॑ता वि॒श्वरू॑पा॒स्तेनौ॑द॒नेनाति॑ तराणि मृ॒त्युम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यस्मा॑त् । प॒क्वात् । अ॒मृत॑म् । स॒म्ऽब॒भूव॑ । य: । गा॒य॒त्र्या: । अधि॑ऽपति: । ब॒भूव॑ । यस्मि॑न् । वेदा॑: । निऽहि॑ता: । वि॒श्वऽरू॑पा: । तेन॑ । ओ॒द॒नेन॑ । अति॑ । त॒रा॒णि॒ । मृ॒त्युम् ॥३५.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यस्मात्पक्वादमृतं संबभूव यो गायत्र्या अधिपतिर्बभूव। यस्मिन्वेदा निहिता विश्वरूपास्तेनौदनेनाति तराणि मृत्युम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यस्मात् । पक्वात् । अमृतम् । सम्ऽबभूव । य: । गायत्र्या: । अधिऽपति: । बभूव । यस्मिन् । वेदा: । निऽहिता: । विश्वऽरूपा: । तेन । ओदनेन । अति । तराणि । मृत्युम् ॥३५.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 35; मन्त्र » 6

    पदार्थ -

    १. (यस्मात् पक्वात्) = जिस परिपक्व हुए-हुए भोजन से (अमृतं सम्बभूव) = अमृत की उत्पत्ति होती है। ज्ञान का परिपाक होने पर निष्पापता होती है। यह निष्पापता 'नीरोगता व अमृतत्व' का साधन बनती है। (य:) = जो ज्ञान (गायत्र्या:) = गायत्री का (अधिपतिः बभूव) = अधिपति है [प्राणो गायत्रम्-तां० ७.१.९] यह ज्ञान प्राणशक्ति का स्वामी है। वासना-दहन द्वारा यह प्राणशक्ति का रक्षण करता है। अथवा [गायत्री गायते: स्तुतिकर्मणः-निरु०१.८] यह ज्ञान स्तुति का अधिपति है-ज्ञानी स्तोता ही सर्वोत्कृष्ट स्तोता है। २. (यस्मिन्) = जिस ज्ञान में (विश्वरूपा:) = सब सत्यविद्याओं का निरूपण करनेवाले (वेदा:निहिता:) = वेद निहित हैं, अर्थात् जो ज्ञान इन वेदों से निर्दिष्ट हुआ है, (तेन ओदनेन) = उस ज्ञानरूप भोजन से (मृत्युम् अतितराणि) = मैं मृत्यु को पार कर जाऊँ।

    भावार्थ -

    ज्ञान अमृतत्व का साधन है। यह प्राणशक्ति का अधिपति है। वेदों द्वारा प्रभु ने यह ज्ञान दिया है। इस ज्ञान से हम मृत्यु को तैर जाएँ।

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