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अथर्ववेद के काण्ड - 4 के सूक्त 35 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 35/ मन्त्र 6
    ऋषिः - प्रजापतिः देवता - अतिमृत्युः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - मृत्युसंतरण सूक्त
    75

    यस्मा॑त्प॒क्वाद॒मृतं॑ संब॒भूव॒ यो गा॑य॒त्र्या अधि॑पतिर्ब॒भूव॑। यस्मि॒न्वेदा॒ निहि॑ता वि॒श्वरू॑पा॒स्तेनौ॑द॒नेनाति॑ तराणि मृ॒त्युम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यस्मा॑त् । प॒क्वात् । अ॒मृत॑म् । स॒म्ऽब॒भूव॑ । य: । गा॒य॒त्र्या: । अधि॑ऽपति: । ब॒भूव॑ । यस्मि॑न् । वेदा॑: । निऽहि॑ता: । वि॒श्वऽरू॑पा: । तेन॑ । ओ॒द॒नेन॑ । अति॑ । त॒रा॒णि॒ । मृ॒त्युम् ॥३५.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यस्मात्पक्वादमृतं संबभूव यो गायत्र्या अधिपतिर्बभूव। यस्मिन्वेदा निहिता विश्वरूपास्तेनौदनेनाति तराणि मृत्युम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यस्मात् । पक्वात् । अमृतम् । सम्ऽबभूव । य: । गायत्र्या: । अधिऽपति: । बभूव । यस्मिन् । वेदा: । निऽहिता: । विश्वऽरूपा: । तेन । ओदनेन । अति । तराणि । मृत्युम् ॥३५.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 35; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ब्रह्मविद्या का उपदेश।

    पदार्थ

    (यस्मात् पक्वात्) जिस परिपक्व परमात्मा से (अमृतम्) मोक्ष (संबभूव) उत्पन्न हुआ, (यः) जो (गायत्र्याः) गायत्री [स्तुति वा वेदवाणी] का (अधिपतिः) अधिपति (बभूव) हुआ, (यस्मिन्) जिसमें (विश्वरूपाः) सबसे कीर्तन योग्य अथवा सबका निरूपण करनेवाले (वेदाः) वेद (निहिताः) निधिरूप से स्थित हैं। (तेन) उस (ओदनेन) बढ़ानेवाले वा अन्नरूप परमात्मा के साथ (मृत्युम्) मरण के कारण [निरुत्साह आदि दोष] को (अति=अतीत्य) लाँघकर (तराणि) मैं तरजाऊँ ॥६॥

    भावार्थ

    जिस परमात्मा ने कल्याणमयी वेदवाणी देकर मनुष्यों को मोक्ष का अधिकारी किया है, उसके गुण कर्म स्वभाव को पहिचान कर हम सदा पुरुषार्थ करते रहें ॥६॥

    टिप्पणी

    ६−(यस्मात्) परमात्मनः (पक्वात्) दृढस्वभावात् (अमृतम्) अमरणहेतुः। मोक्षः (संबभूव) उत्पन्नं बभूव (यः) (गायत्र्याः) अ० ३।३।२। अभिनक्षियजि०। उ० ३।१०५। इति गै शब्दे-अत्रन्, स च णित्, ङीप्। गायत्रं गायतेः स्तुतिकर्मणः-निरु० ७।१२। गायनीयायाः स्तुतेः। वेदवाण्याः। (अधिपतिः) स्वामी (बभूव) (यस्मिन्) (वेदाः) विद ज्ञाने, विद सत्तायाम्, विद्लृ लाभे विद विचारणे-घञ्। धर्मब्रह्मप्रतिपादकानि ऋग्यजुःसामाथर्वात्मकानि अपौरुषेयाणि शास्त्राणि (निहिताः) निधिरूपेण स्थापिताः (विश्वरूपाः) खष्पशिल्पशष्पवाष्परूपपर्पतल्पाः। उ० ३।२८। इति रु शब्दे-प, दीर्घश्च। यद्वा रूप रूपक्रियायाम् अच्, रूयते रूप्यते वा रूपम्। सर्वै रूयमाणाः कीर्त्यमानाः। सर्वेषां पदार्थानां रूपका निरूपकाः। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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    विषय

    गायत्री का अधिपति

    पदार्थ

    १. (यस्मात् पक्वात्) = जिस परिपक्व हुए-हुए भोजन से (अमृतं सम्बभूव) = अमृत की उत्पत्ति होती है। ज्ञान का परिपाक होने पर निष्पापता होती है। यह निष्पापता 'नीरोगता व अमृतत्व' का साधन बनती है। (य:) = जो ज्ञान (गायत्र्या:) = गायत्री का (अधिपतिः बभूव) = अधिपति है [प्राणो गायत्रम्-तां० ७.१.९] यह ज्ञान प्राणशक्ति का स्वामी है। वासना-दहन द्वारा यह प्राणशक्ति का रक्षण करता है। अथवा [गायत्री गायते: स्तुतिकर्मणः-निरु०१.८] यह ज्ञान स्तुति का अधिपति है-ज्ञानी स्तोता ही सर्वोत्कृष्ट स्तोता है। २. (यस्मिन्) = जिस ज्ञान में (विश्वरूपा:) = सब सत्यविद्याओं का निरूपण करनेवाले (वेदा:निहिता:) = वेद निहित हैं, अर्थात् जो ज्ञान इन वेदों से निर्दिष्ट हुआ है, (तेन ओदनेन) = उस ज्ञानरूप भोजन से (मृत्युम् अतितराणि) = मैं मृत्यु को पार कर जाऊँ।

    भावार्थ

    ज्ञान अमृतत्व का साधन है। यह प्राणशक्ति का अधिपति है। वेदों द्वारा प्रभु ने यह ज्ञान दिया है। इस ज्ञान से हम मृत्यु को तैर जाएँ।

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    भाषार्थ

    (यस्मात् पक्वात्) जिसके परिपक्व होने से (अमृतम्, संबभूव) मोक्ष हुआ, (यः) जो (गायत्र्याः) गायत्री१ [मन्त्र] का (अधिपतिः बभूव), अधिदेवता हुआ है; (यस्मिन्) जिसमें (विश्वरूपाः) विश्व का निरूपण करनेवाले (वेदाः निहिताः) वेद निहित हैं, (तेन ओदनेन अति तराणि मृत्युम्) उस ओदन द्वारा मैं मृत्यु को [भवसागर को] तैर जाऊँ।

    टिप्पणी

    [मन्त्र में स्पष्ट रूप में ओदन द्वारा परमेश्वर अभिहित है। प्रश्न स्वाभाविक है कि परमेश्वर को ओदन क्यों कहा? उत्तर यह है कि परमेश्वर स्वलीन ध्यानियों के लिए अन्नरूप है, परमेश्वर में लीन हुए ध्यानी परमेश्वरीय आनन्दरस का पान करके तृप्त रहते हैं, इसलिए परमेश्वर को अन्न कहा है।] [१. 'गायत्री' पद द्वारा किसी भी गायत्री-छन्दोबद्ध मन्त्र का निर्देश नहीं हुआ, अपितु प्रसिद्ध जप्य गायत्री-मन्त्र का निर्देश हुआ है। यथा "तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्" (यजुः० ३।३५; २२।९: ३०।२) । इस द्वारा जप्य गायत्री की विशेष महिमा सूचित होती है।]

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    विषय

    प्रजापति की उपासना से मृत्यु को तरना।

    भावार्थ

    (यस्मात्) जिस (पक्वाद्) परिपक्व सामर्थ्य, एवं सुविचारित, पुनः पुनः योग समाधि द्वारा अभ्यास किये गये ब्रह्म से (अमृतं सम्-बभूव) अमृत, परम मोक्ष रस उत्पन्न होता है। और (यः) जो (गायत्र्याः अधिपतिः बभूव) गायत्री का अधिपति है। और (यस्मिन्) जिसमें (विश्व-रूपाः) समस्त (वेदाः) वेदज्ञान (निहिताः) रक्खे हैं। (तेन ओदनेन मृत्युम् अतितराणि) उस परम ओदन रूप परमेश्वर द्वारा मैं मृत्यु को पार करूं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रजापतिर्ऋषिः। मृत्योरेतिक्रमण देवताः। ३ भुरिक्। ४ जगती, १, २, ५-७ त्रिष्टुभः। सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Conquest of Death

    Meaning

    From whose perfect nature and creativity, the nectar of immortality of life is generated, who is the lord master and creator of the Gayatri joy of existence, in whose omniscience all the Vedas of the universal forms and branches of knowledge are treasured, by that very spiritual food of Brahma I too would conquer and outlive death and achieve the life eternal.

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    Translation

    From which, when it is cooked, the ambrosia comes into existence; which is the overlord of the Gayatri (inclination to sing); within which lies the knowledge in its all the forms; with that odana (cooked rice-mess) may I cross over death.

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    Translation

    I, the observer of celibacy conquer mortality or death with this Odana, from which matured, came out immortality into being, which is the preserver of Gayatri mantra and in which the perfect Vedas are treasured.

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    Translation

    From Whom, Matured, sprang salvation into being Who, bath become Gayatri's Lord and Ruler, in Whom the perfect vain have treasured—may I with the help of that God conquer death.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ६−(यस्मात्) परमात्मनः (पक्वात्) दृढस्वभावात् (अमृतम्) अमरणहेतुः। मोक्षः (संबभूव) उत्पन्नं बभूव (यः) (गायत्र्याः) अ० ३।३।२। अभिनक्षियजि०। उ० ३।१०५। इति गै शब्दे-अत्रन्, स च णित्, ङीप्। गायत्रं गायतेः स्तुतिकर्मणः-निरु० ७।१२। गायनीयायाः स्तुतेः। वेदवाण्याः। (अधिपतिः) स्वामी (बभूव) (यस्मिन्) (वेदाः) विद ज्ञाने, विद सत्तायाम्, विद्लृ लाभे विद विचारणे-घञ्। धर्मब्रह्मप्रतिपादकानि ऋग्यजुःसामाथर्वात्मकानि अपौरुषेयाणि शास्त्राणि (निहिताः) निधिरूपेण स्थापिताः (विश्वरूपाः) खष्पशिल्पशष्पवाष्परूपपर्पतल्पाः। उ० ३।२८। इति रु शब्दे-प, दीर्घश्च। यद्वा रूप रूपक्रियायाम् अच्, रूयते रूप्यते वा रूपम्। सर्वै रूयमाणाः कीर्त्यमानाः। सर्वेषां पदार्थानां रूपका निरूपकाः। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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