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अथर्ववेद > काण्ड 5 > सूक्त 8

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  • अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 8/ मन्त्र 3
    सूक्त - अथर्वा देवता - विश्वे देवाः छन्दः - भुरिक्पथ्यापङ्क्तिः सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त

    यद॒साव॒मुतो॑ देवा अदे॒वः संश्चिकी॑र्षति। मा तस्या॒ग्निर्ह॒व्यं वा॑क्षी॒द्धवं॑ दे॒वा अ॑स्य॒ मोप॒ गुर्ममै॒व हव॒मेत॑न ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । अ॒सौ । अ॒मुत॑: । दे॒वा॒: । अ॒दे॒व: । सन् । चिकी॑र्षति । मा । तस्य॑ । अ॒ग्नि: । ह॒व्यम् । वा॒क्षी॒त् । हव॑म् । दे॒वा: । अ॒स्य॒ । मा । उप॑ । गु॒: । मम॑ । ए॒व । हव॑म् । आ । इ॒त॒न॒ ॥८.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदसावमुतो देवा अदेवः संश्चिकीर्षति। मा तस्याग्निर्हव्यं वाक्षीद्धवं देवा अस्य मोप गुर्ममैव हवमेतन ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । असौ । अमुत: । देवा: । अदेव: । सन् । चिकीर्षति । मा । तस्य । अग्नि: । हव्यम् । वाक्षीत् । हवम् । देवा: । अस्य । मा । उप । गु: । मम । एव । हवम् । आ । इतन ॥८.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 8; मन्त्र » 3

    पदार्थ -

    १. यदि कोई हमारा विरोध करता है तो प्रभु ठीक मार्ग पर चलनेवाले हम लोगों का रक्षण करें और उस अदेववृत्ति के व्यक्ति को उचित दण्ड दें। हे (देवा:) = देवो! (यत्) = जो (असौ) = वह (अदेवः सन्) = अदेव [न देने की] वृत्तिवाला होता हुआ व्यक्ति (अमुत:) = उस सुदूर प्रदेश से हमारे विरोधी पक्ष से (चिकीर्षति) = हमारा हानिकर कर्म करना चाहता है तो (अग्निः) = वे प्रभु (तस्य) = उसके (हव्यं मा वाक्षीत्) = हव्यपदार्थ का वहन न करें-प्रभु उसे आवश्यक पदार्थों से वञ्चित करें। वह इसप्रकार दरिद्रता में व्यथित हो कि उसमें पर-पीड़न की शक्ति ही न रहे। २. (देवाः) = विद्वान् लोग (अस्य हवं मा उपगु:) = उसकी पुकार को सुनकर उसे प्रास न हों-विद्वानों से उसका बहिष्कार किया जाए। ये विद्वान् (मम एव हवं एतन) = मेरी ही पुकार पर प्राप्त हों। इसप्रकार यह अदेव सामाजिक बहिष्कार की पीड़ा को अनुभव करे।

     

    भावार्थ -

    हे देवो! यदि कोई अदेव वृत्ति का व्यक्ति देववृत्ति के व्यक्तियों को पीड़ित करना चाहता है तो प्रभु उसे हव्य पदार्थ प्राप्त न कराके उसे दण्डित करें तथा विद्वान् लोग उसके आमन्त्रण को अस्वीकार करके उसे सामाजिक बहिष्कार की पीड़ा को अनुभव कराएँ।

     

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