अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 8/ मन्त्र 4
सूक्त - अथर्वा
देवता - इन्द्रः
छन्दः - भुरिक्पथ्यापङ्क्तिः
सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
अति॑ धावतातिसरा॒ इन्द्र॑स्य॒ वच॑सा हत। अविं॒ वृक॑ इव मथ्नीत॒ स वो॒ जीव॒न्मा मो॑चि प्रा॒णम॒स्यापि॑ नह्यत ॥
स्वर सहित पद पाठअति॑ । धा॒व॒त॒ । अ॒ति॒ऽस॒रा॒: । इन्द्र॑स्य । वच॑सा । ह॒त॒ । अवि॑म् । वृक॑:ऽइव । म॒थ्नी॒त॒ । स: । व॒: । जीव॑न् । मा । मो॒चि॒। प्रा॒णम् । अ॒स्य । अपि॑ । न॒ह्य॒त॒ ॥८.४॥
स्वर रहित मन्त्र
अति धावतातिसरा इन्द्रस्य वचसा हत। अविं वृक इव मथ्नीत स वो जीवन्मा मोचि प्राणमस्यापि नह्यत ॥
स्वर रहित पद पाठअति । धावत । अतिऽसरा: । इन्द्रस्य । वचसा । हत । अविम् । वृक:ऽइव । मथ्नीत । स: । व: । जीवन् । मा । मोचि। प्राणम् । अस्य । अपि । नह्यत ॥८.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 8; मन्त्र » 4
विषय - इन्द्रस्य वचसा हत
पदार्थ -
१. हे (अतिसरा:) = अतिशयेन गतिशील पुरुषो! (अतिधावत) = तुम गति द्वारा अपने जीवन को अति शुद्ध बनाओ। (इन्द्रस्य वचसा हत) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु के वचन से-उसके आदेश के अनुसार सम्पूर्ण समाज के शत्रु को मार डालो। यदि उसके सुधरने की आशा नहीं है तो उसे प्राणों से वञ्चित करना ठीक ही है। २. (इव) = जैसे (वृक: अविम्) = एक भेड़िया भेड़ का मथन कर डालता है, इसप्रकार तुम इस समाज-शत्रु को मनीत कुचल डालो। (सः) = वह (वः) = तुमसे (जीवन् मा मोचि) = जीता हुआ न छुट जाए। (अस्य) = इसके (प्राणम्) = प्राण को (अपिनहात) = बाधैं डालो। इसकी प्राणशक्ति इसप्रकार नियन्त्रित कर दी जाए कि यह समाज की कुछ भी हानि न कर सके।
भावार्थ -
हम गति द्वारा अपने जीवन को शुद्ध बनाएँ। प्रभु के आदेश के अनुसार समाज शत्रु को उचित दण्ड देना आवश्यक हो तो वह दिया जाए अथवा उसकी गतिविधियों को पूर्णरूप से नियन्त्रित कर दिया जाए।
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