अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 8/ मन्त्र 1
वै॑कङ्क॒तेने॒ध्मेन॑ दे॒वेभ्य॒ आज्यं॑ वह। अग्ने॒ ताँ इ॒ह मा॑दय॒ सर्व॒ आ य॑न्तु मे॒ हव॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठवै॒क॒ङ्क॒तेन॑ । इ॒ध्मेन॑ । दे॒वेभ्य॑: । आज्य॑म् । व॒ह॒ । अग्ने॑ । तान् । इ॒ह । मा॒द॒य॒ । सर्वे॑ । आ । य॒न्तु॒ । मे॒ । हव॑म् ॥८.१॥
स्वर रहित मन्त्र
वैकङ्कतेनेध्मेन देवेभ्य आज्यं वह। अग्ने ताँ इह मादय सर्व आ यन्तु मे हवम् ॥
स्वर रहित पद पाठवैकङ्कतेन । इध्मेन । देवेभ्य: । आज्यम् । वह । अग्ने । तान् । इह । मादय । सर्वे । आ । यन्तु । मे । हवम् ॥८.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 8; मन्त्र » 1
विषय - वैकंकत इध्म
पदार्थ -
१. जैसे 'कंकतिका' बालों में से मैल को दूर कर देती है [comb off remove], उसी प्रकार वह ज्ञानदीप्सि जो जीवन में से काम-क्रोध आदि को दूर कर देती है, यहाँ 'वैकङ्कत इध्म' कही गई है [इन्धी दीसौ]। इस (वैक्ड़तेन इध्मेन) = विशेषरूप से मलों का बारण करनेवाली ज्ञानदीति के हेतु से हे (अग्ने) = प्रभो! (देवेभ्यः आग्यं) = वह-विद्वानों से हमारे लिए ज्ञानरूपी घृत प्राप्त कराइए। २. (तान्) = उन देवों को (इह) = यहाँ-हमारे जीवनों में (मादय) = अनान्दित कीजिए। हम इन ज्ञानियों का सत्कार करें, वे हमसे प्रसन्न रहें और (सर्वे) = वे सब (मे हवम्) = मेरी पुकार को सुनकर (आयन्तु) = मुझे प्रास हों। मेरा घर सदा ज्ञानियों का अतिथिगह बना रहे।
भावार्थ -
ज्ञान वह कंकतिका [कंघी] है जो काम-क्रोध आदि मलों का वारण करती है। मुझे ज्ञानियों से यह ज्ञान प्राप्त होता रहे। हम ज्ञानियों का सम्पर्क करें और उनके प्रिय बनें।
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