अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 8/ मन्त्र 9
सूक्त - अथर्वा
देवता - इन्द्रः
छन्दः - षट्पदा द्व्यनुष्टुब्गर्भा जगती
सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
अत्रै॑नानिन्द्र वृत्रहन्नु॒ग्रो मर्म॑णि विध्य। अत्रै॒वैना॑न॒भि ति॒ष्ठेन्द्र॑ मे॒द्यहं तव॑। अनु॑ त्वे॒न्द्रा र॑भामहे॒ स्याम॑ सुम॒तौ तव॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअत्र॑ । ए॒ना॒न् । इ॒न्द्र॒ । वृ॒त्र॒ऽह॒न् । उ॒ग्र: । मर्म॑णि । वि॒ध्य॒ । अत्र॑ । ए॒व । ए॒ना॒न् । अ॒भि । ति॒ष्ठ॒ । इन्द्र॑ । मे॒दी । अ॒हम् । तव॑ । अनु॑ । त्वा॒ । इ॒न्द्र॒ । आ । र॒भा॒म॒हे॒ । स्याम॑ । सु॒ऽम॒तौ । तव॑ ॥८.९॥
स्वर रहित मन्त्र
अत्रैनानिन्द्र वृत्रहन्नुग्रो मर्मणि विध्य। अत्रैवैनानभि तिष्ठेन्द्र मेद्यहं तव। अनु त्वेन्द्रा रभामहे स्याम सुमतौ तव ॥
स्वर रहित पद पाठअत्र । एनान् । इन्द्र । वृत्रऽहन् । उग्र: । मर्मणि । विध्य । अत्र । एव । एनान् । अभि । तिष्ठ । इन्द्र । मेदी । अहम् । तव । अनु । त्वा । इन्द्र । आ । रभामहे । स्याम । सुऽमतौ । तव ॥८.९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 8; मन्त्र » 9
विषय - प्रभु की सहायता से काम आदि शत्रुओं का विनाश
पदार्थ -
१. प्रभु कहते हैं कि (अत्र) = यहाँ-इसी जीवन में (एनान्) = इन शत्रुओं को हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष! (वृत्रहन्) = इन वासनाओं को विनष्ट करनेवाले पुरुष! तू (मर्मणि विध्य) = मर्मस्थलों में विद्ध करनेवाला हो। (अत्र एव) = यहाँ, इस जीवकाल में ही (एनान् अभितिष्ठ) = इन्हें पादाक्रान्त कर। हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष | (अहम्) = मैं [प्रभु] तव (मेदी) = तुझ जितेन्द्रिय पुरुष का स्नेही बनता हूँ। प्रभु जितेन्द्रिय के ही मित्र होते हैं। २. एक जितेन्द्रिय पुरुष उत्तर देता है कि हे (इन्द्र) = हमारे शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले प्रभो! हम (त्वा अनु आरभामहे) = आपके पीछे-पीछे ही आपकी सहायता से ही इस शत्रु-विनाश के कार्य को प्रारम्भ करते हैं। हम सदा तव-आपकी सुमतौ स्याम-कल्याणी मति में हों।
भावार्थ -
प्रभु का आदेश है कि हम इस जीवन में काम-क्रोध आदि शत्रुओं का पराभव करने के लिए यत्नशील हों, अत: हम प्रभु की सहायता से इन्हें परास्त करनेवाले बनें।
विशेष -
सब शत्रुओं का पराभव करके यह 'ब्रह्म' का सच्चा पुत्र 'ब्रह्मा' बनता है। यही अगले सूक्त का ऋषि है।