अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 8/ मन्त्र 6
सूक्त - अथर्वा
देवता - इन्द्रः
छन्दः - आस्तारपङ्क्तिः
सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
यदि॑ प्रे॒युर्दे॑वपु॒रा ब्रह्म॒ वर्मा॑णि चक्रि॒रे। त॑नू॒पानं॑ परि॒पाणं॑ कृण्वा॒ना यदु॑पोचि॒रे सर्वं॒ तद॑र॒सं कृ॑धि ॥
स्वर सहित पद पाठयदि॑। प्र॒ऽई॒यु: । दे॒व॒ऽपु॒रा: । ब्रह्म॑ । वर्मा॑णि । च॒क्रि॒रे । त॒नू॒ऽपान॑म् । प॒रि॒ऽपान॑म् । कृ॒ण्वा॒ना: । यत् । उ॒प॒ऽऊ॒चि॒रे । सर्व॑म् । तत् । अ॒र॒सम् । कृ॒धि॒॥८.६॥
स्वर रहित मन्त्र
यदि प्रेयुर्देवपुरा ब्रह्म वर्माणि चक्रिरे। तनूपानं परिपाणं कृण्वाना यदुपोचिरे सर्वं तदरसं कृधि ॥
स्वर रहित पद पाठयदि। प्रऽईयु: । देवऽपुरा: । ब्रह्म । वर्माणि । चक्रिरे । तनूऽपानम् । परिऽपानम् । कृण्वाना: । यत् । उपऽऊचिरे । सर्वम् । तत् । अरसम् । कृधि॥८.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 8; मन्त्र » 6
विषय - यदि प्रेयुः
पदार्थ -
१. (यदि) = यदि (देवपुरा:) = देवनगरियों में निवास करनेवाले व्यक्ति (प्रेयुः) = [प्र ईयु:] शत्रु पर आक्रमण करने के लिए चलते हैं तो वे (ब्रह्म वर्माणि) = ज्ञान व प्रभु को अपना कवच (चक्रिरे) = करते हैं-ब्रह्म-कवच से ये अपना रक्षण करनेवाले होते हैं। २. ज्ञानपूर्वक तथा प्रभु स्मरणपूर्वक (तनूपानम्) = अपने शरीरों का रक्षण तथा (परिपाणम्) = समन्तात् नगर व राष्ट्र का रक्षण (कृण्वाना:) = करते हुए ये (तत् सर्वम् अरसं कृधि) = उस सबको नि:सार कर देते हैं, (यत्) = जो (उप उचिरे) = हमारे विषय में शत्रुओं ने हीन बातें कही हैं। ['कृधि'-एकवचनं छान्दसम्] | शत्रुओं की डींगों को, अभिमानभरी बातों को उन्हें परास्त करके व्यर्थ कर देते हैं।
भावार्थ -
देव लोग पहले तो आक्रमण करते ही नहीं। यदि उन्हें आक्रमण करना ही पड़ जाए तो ये प्रभु को अपना कवच बनाते हैं तथा ज्ञानपूर्वक शरीरों व राष्ट्र के रक्षण की व्यवस्था करते हुए शत्रुओं को परास्त करके उनकी अभिमानभरी बातों को नि:सार कर देते हैं।
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