अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 7/ मन्त्र 10
सूक्त - अथर्वा
देवता - अरातिसमूहः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - अरातिनाशन सूक्त
हिर॑ण्यवर्णा सु॒भगा॒ हिर॑ण्यकशिपुर्म॒ही। तस्यै॒ हिर॑ण्यद्राप॒येऽरा॑त्या अकरं॒ नमः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठहिर॑ण्यऽवर्णा । सु॒ऽभगा॑ । हिर॑ण्यऽकशिपु: । म॒ही । तस्यै॑ । हिर॑ण्यऽद्रापये । अरा॑त्यै । अ॒क॒र॒म् । नम॑: ॥७.१०॥
स्वर रहित मन्त्र
हिरण्यवर्णा सुभगा हिरण्यकशिपुर्मही। तस्यै हिरण्यद्रापयेऽरात्या अकरं नमः ॥
स्वर रहित पद पाठहिरण्यऽवर्णा । सुऽभगा । हिरण्यऽकशिपु: । मही । तस्यै । हिरण्यऽद्रापये । अरात्यै । अकरम् । नम: ॥७.१०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 7; मन्त्र » 10
विषय - राजस कार्पण्य
पदार्थ -
१. वह कृपण व्यक्ति जो दान देने में संकोच करता है, परन्तु अपने भोगों पर खुला खर्च करता है, राजसी वृत्तिवाला कृपण है। इसका घर भोग-विलास की वस्तुओं से चमकता है, परन्तु यह दान नहीं दे पाता, (तस्यै) = उस (हिरण्यद्रापये) = सुवर्ण को कवच की भांति धारण करनेवाली [द्रापि-कवच-द०] (अरात्यै) = अदानवृत्ति के लिए (नमः अकरम्) = मैं नमस्कार करता हूँ इसे अपने से दूर ही रखता हूँ। २. यह अराति (हिरण्यवर्णा) = स्वर्ण के वर्णवाली है-स्वर्ण का ही सदा वर्णन करती है, (सुभगा) = देखने में बड़ी (भाग्यवती)= -चमकती हुई है, (हिरण्य-कशिपुः) = स्वर्ण के आच्छादनोंवाली है, (मही) = महिमावाली है-देखने में कितनी बड़ी है।
भावार्थ -
कृषण राजस पुरुष अपने घर के लिए भौतिक साधनों को खूब ही जुटाता है। इसका घर चमकता प्रतीत होता है, सौभाग्यशाली लगता है। यह बड़ा कहाता है। हम इस राजसी कृपणता से ऊपर उठें, धनों का व्यय भोगों में न करके दान में करें।
अगले सूक्त में भी ऋषि 'अथर्वा' ही है। अथैकादशः प्रपाठक:
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