अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 7/ मन्त्र 1
सूक्त - अथर्वा
देवता - अरातिसमूहः
छन्दः - विराड्गर्भा प्रस्तारपङ्क्तिः
सूक्तम् - अरातिनाशन सूक्त
आ नो॑ भर॒ मा परि॑ ष्ठा अराते॒ मा नो॑ रक्षी॒र्दक्षि॑णां नी॒यमा॑नाम्। नमो॑ वी॒र्त्साया॒ अस॑मृद्धये॒ नमो॑ अ॒स्त्वरा॑तये ॥
स्वर सहित पद पाठआ । न॒: । भ॒र॒ । मा । परि॑ । स्था॒: । अ॒रा॒ते॒ । मा । न॒: । र॒क्षी॒: । दक्षि॑णाम् । नी॒यमा॑नाम् । नम॑: । वि॒ऽई॒र्त्सायै॑ । अस॑म्ऽऋध्दये । नम॑: । अ॒स्तु॒। अरा॑तये ॥७.१॥
स्वर रहित मन्त्र
आ नो भर मा परि ष्ठा अराते मा नो रक्षीर्दक्षिणां नीयमानाम्। नमो वीर्त्साया असमृद्धये नमो अस्त्वरातये ॥
स्वर रहित पद पाठआ । न: । भर । मा । परि । स्था: । अराते । मा । न: । रक्षी: । दक्षिणाम् । नीयमानाम् । नम: । विऽईर्त्सायै । असम्ऽऋध्दये । नम: । अस्तु। अरातये ॥७.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 7; मन्त्र » 1
विषय - 'विर्त्सा, असमृद्धि, अराति' से दूर
पदार्थ -
१. हे प्रभो! (न:) = हमारा (आभर) = समन्तात् भरण कीजिए, (मा परिष्ठा:) = आप हमसे दूर न होओ। आपकी समीपता में ही हम दान आदि उत्तम वृत्तिवाले बने रहेंगे और धनलोलुप न बनेंगे। हे (अराते) = अदान की वृत्ते ! (नियमानाम्) = प्राप्त कराई जाती हुई (न:) = हमारी (दक्षिणाम्) = दान में देय धन को (मा रक्षी:) = मत रख ले, अर्थात् दान देते-देते हम उस देय धन को रोक ही न लें। २. इस (विर्त्साये) = विशिष्टरूप से ऋद्धि की प्राति की इच्छा के लिए (नमः) = हम दूर से नमस्कार करते हैं। इसप्रकार (असमृद्धये:) = असमृद्धि के लिए भी (नमः) = नमस्कार करते हैं। दान देते हुए हम कभी असमृद्ध तो होंगे ही नहीं, अतः (अरातये) = इस अदानवृत्ति के लिए (नमः अस्तु) = दूर से नमस्कार हो।
भावार्थ -
हे प्रभो ! हमसे वीर्सा दूर हो जाए। हम वीत्सा के कारण दान ही न दें, ऐसा न हो। परिणामतः असमृद्धि हमसे दूर ही रहे। दानवृत्ति तो हमारे धनों को बढ़ाती ही है।
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