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अथर्ववेद > काण्ड 5 > सूक्त 7

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  • अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 7/ मन्त्र 8
    सूक्त - अथर्वा देवता - अरातिसमूहः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - अरातिनाशन सूक्त

    उ॒त न॒ग्ना बोभु॑वती स्वप्न॒या स॑चसे॒ जन॑म्। अरा॑ते चि॒त्तं वीर्त्स॒न्त्याकू॑तिं॒ पुरु॑षस्य च ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒त । न॒ग्ना । बोभु॑वती । स्व॒प्न॒ऽया । स॒च॒से॒ । जन॑म् । अरा॑ते । चि॒त्तम् । वि॒ऽईर्त्स॑न्ती । आऽकू॑तिम् । पुरु॑षस्य । च॒ ॥७.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत नग्ना बोभुवती स्वप्नया सचसे जनम्। अराते चित्तं वीर्त्सन्त्याकूतिं पुरुषस्य च ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत । नग्ना । बोभुवती । स्वप्नऽया । सचसे । जनम् । अराते । चित्तम् । विऽईर्त्सन्ती । आऽकूतिम् । पुरुषस्य । च ॥७.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 7; मन्त्र » 8

    पदार्थ -

    १. हे (असमृद्धे) = ऐश्वर्य के अभाव ! (परः अप) = इह हमसे परे सुदूर प्रदेश में चला जा । हम (ते) = तेरे लिए (हेतिम्) = वज्र को (विनयामसि) = विशेषरूप से प्राप्त कराते हैं, अर्थात् वज्रप्रहार द्वारा तेरा विनाश करते हैं। असमृद्धि को नष्ट करनेवाला वज्र क्रियाशीलता ही है । २. हे (अराते) = अदानशीलते! दान न देने की वृत्ते ! (अहम्) = मैं (त्वा) = तुझे (निमीवन्तीम्) = (निमी Shut the eyes, मी to destroy ) आँखों को बन्द कर देनेवाली, अर्थात् ज्ञान पर पर्दा डाल देनेवाली तथा विनाशकारिणी और (नितुदन्तीम्) = परिणाम में निश्चय से पीड़ित करनेवाली वेद जानता हूँ। अदानशीलता 'अज्ञान, ह्रास व पीड़ा' का कारण बनती है ।

    भावार्थ -

    हम श्रम द्वारा असमृद्धि को दूर करें तथा दानशीलता द्वारा ह्रास व कष्टों से बचें।

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