अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 7/ मन्त्र 9
सूक्त - अथर्वा
देवता - अरातिसमूहः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - अरातिनाशन सूक्त
या म॑ह॒ती म॒होन्मा॑ना॒ विश्वा॒ आशा॑ व्यान॒शे। तस्यै॑ हिरण्यके॒श्यै निरृ॑त्या अकरं॒ नमः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठया । म॒ह॒ती । म॒हाऽउ॑न्माना । विश्वा॑: । आशा॑: । वि॒ऽआ॒न॒शे । तस्यै॑ । हि॒र॒ण्य॒ऽके॒श्यै । नि:ऽऋ॑त्यै । अ॒क॒र॒म् । नम॑: ॥७.९॥
स्वर रहित मन्त्र
या महती महोन्माना विश्वा आशा व्यानशे। तस्यै हिरण्यकेश्यै निरृत्या अकरं नमः ॥
स्वर रहित पद पाठया । महती । महाऽउन्माना । विश्वा: । आशा: । विऽआनशे । तस्यै । हिरण्यऽकेश्यै । नि:ऽऋत्यै । अकरम् । नम: ॥७.९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 7; मन्त्र » 9
विषय - अदानशीलता व घोर निर्धनता
पदार्थ -
१. हे (अराते) = अदानशीलते! (उत) = निश्चय से (नग्ना बोभुवती) = नग्न होती हुई तू (जनम्) = मनुष्य की (स्वप्नया सचसे) = स्वप्नावस्था से समवेत कर देती है। अदानशील मनुष्य अत्यन्त निर्धन अवस्था में पहुचकर अपनी पहली स्थिति के स्वप्न ही लिया करता है-उसे स्वयं ही वह अवस्था स्वप्नतुल्य लगने लगती है। २. हे अदानशीलते! तू (पुरुषस्य) = इस कृपण पुरुष के (चित्तम्) = चित्त को (च) = और (आकूतिम्) = संकल्पों को (वीर्त्सन्ती) = विगत ऋद्धिवाला कर देती है। कृपणता मनुष्य के चित्त व संकल्पों को समास कर देती है। यह मनुष्य को भीषण निर्धनता में ले जाकर सुला-सा देती है। यह सोया हुआ पुरुष अपनी पूर्वावस्था के स्वप्न ही लिया करता है।
भावार्थ -
अदानशीलता मनुष्य को घोर निर्धनता में ले-जाती है। उसका चित्त व संकल्प सब नष्ट हो जाता है। यह दीन अवस्था में सोया हुआ-सा पूर्वावस्था के स्वप्न ही लिया करता है।
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