अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 7/ मन्त्र 4
सूक्त - अथर्वा
देवता - सरस्वती
छन्दः - पथ्यापङ्क्तिः
सूक्तम् - अरातिनाशन सूक्त
सर॑स्वती॒मनु॑मतिं॒ भगं॒ यन्तो॑ हवामहे। वाचं जु॒ष्टां मधु॑मतीमवादिषं दे॒वानां॑ दे॒वहू॑तिषु ॥
स्वर सहित पद पाठसर॑स्वतीम् । अनु॑ऽमतिम् । भग॑म् । यन्त॑: । ह॒वा॒म॒हे॒ । वाच॑म् । जु॒ष्टाम् । मधु॑ऽमतीम् । अ॒वा॒दि॒ष॒म् । दे॒वाना॑म् । दे॒वऽहू॑तिषु ॥७.४॥
स्वर रहित मन्त्र
सरस्वतीमनुमतिं भगं यन्तो हवामहे। वाचं जुष्टां मधुमतीमवादिषं देवानां देवहूतिषु ॥
स्वर रहित पद पाठसरस्वतीम् । अनुऽमतिम् । भगम् । यन्त: । हवामहे । वाचम् । जुष्टाम् । मधुऽमतीम् । अवादिषम् । देवानाम् । देवऽहूतिषु ॥७.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 7; मन्त्र » 4
विषय - सरस्वती अनुमति
पदार्थ -
१. (भगं यन्त:) = ऐश्वर्य को प्राप्त होते हुए हम (सरस्वतीम्) = विद्या की अधिष्ठातृदेवता सरस्वती को तथा (अनुमतिम्) = शास्त्रानुकूल कर्म की मति को (हवामहे) = पुकारते हैं। हम ऐश्वर्यशाली होकर ज्ञान की रुचिवाले तथा शास्त्रानुकूल यज्ञादि कर्मों के करने की वृत्तिवाले बने रहें, अन्यथा यह धन हमें विलास की ओर ले-जाएगा। २. मैं सदा (देवहूतिषु) = देवों के आह्वानवाली सभाओं में (देवानां जुष्टाम्) = देवों की प्रिय (मधुमतीम्) = माधुर्यवाली (वाचम्) = वाणी को (अवादिषम्) = बोलूँ। मैं सदा सत्सङ्गों में उपस्थित होऊँ और मधुर वाणी ही बोलें।
भावार्थ -
ऐश्वर्यशाली होकर हम विद्यारुचि व शास्त्रानुकूल कर्मों की प्रवृत्तिवाले बनें, सत्संगों में सम्मिलित हों और मधुर शब्द ही बोलें।
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