अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 7/ मन्त्र 2
सूक्त - अथर्वा
देवता - अरातिसमूहः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - अरातिनाशन सूक्त
यम॑राते पुरोध॒त्से पुरु॑षं परिरा॒पिण॑म्। नम॑स्ते॒ तस्मै॑ कृण्मो॒ मा व॒निं व्य॑थयी॒र्मम॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयम् । अ॒रा॒ते॒ । पु॒र॒:ऽध॒त्से । पुरु॑षम् । प॒रि॒ऽरा॒पिण॑म् । नम॑: । ते॒ । तस्मै॑ । कृ॒ण्म॒: । मा । व॒निम् । व्य॒थ॒यी॒: । मम॑ ॥७.२॥
स्वर रहित मन्त्र
यमराते पुरोधत्से पुरुषं परिरापिणम्। नमस्ते तस्मै कृण्मो मा वनिं व्यथयीर्मम ॥
स्वर रहित पद पाठयम् । अराते । पुर:ऽधत्से । पुरुषम् । परिऽरापिणम् । नम: । ते । तस्मै । कृण्म: । मा । वनिम् । व्यथयी: । मम ॥७.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 7; मन्त्र » 2
विषय - दानवृत्ति का पोषण
पदार्थ -
१. गतमन्त्र के अनुसार मनुष्य जब 'वीत्सा' वाला हो जाता है तब वह अपने समय के किसी कृपण धनी पुरुष को अपना आदर्श बनाता है-उसे अपने सामने आदर्श के रूप में रखता है कि मैं भी इतना ही धनी हो जाऊँ। मन्त्र में कहते हैं कि (अराते) = हे अदानवृत्ते! (यम्) = जिस (परिरापिणम्) = बहुत ही बोलनेवाले, बड़ी आत्मश्लाघा करनेवाले पुरुष को-धनाभिमानी पुरुष को (पुरः धत्से) = तू अपने सामने रखती है, हम तो (ते) = तेरे (तस्मै) = उस पुरुष के लिए (नमः कृण्मः) = नमस्कार करते हैं-उसे अपने से दूर रखते हैं। हम उसे अपना आदर्श नहीं बनाते। २. हे अदानवृत्ते ! तू (मम) = मेरी (वनिम्) = इस सम्भजन वृत्ति को-धन को बाँटकर खाने की वृत्ति को (मा व्यथयी:) = मत पीड़ित कर । मैं धन के लोभ में अदानवृत्तिवाला न बनें। मैं अदानी धनी को अपना आदर्श न बना लूं।
भावार्थ -
अपने धनित्व का बखान करनेवाले कृपण व्यक्ति को हम अपना आदर्श न बना लें। हमारी दानवृत्ति कभी खण्डित न हो।
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