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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 101

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 101/ मन्त्र 3
    सूक्त - अथर्वाङ्नगिरा देवता - ब्रह्मणस्पतिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - बलवर्धक सूक्त

    आहं त॑नोमि ते॒ पसो॒ अधि॒ ज्यामि॑व॒ धन्व॑नि। क्रम॑स्वर्श॑ इव रो॒हित॒मन॑वग्लायता॒ सदा॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । अ॒हम् । त॒नो॒मि॒ । ते॒ । पस॑: । अधि॑ । ज्याम्ऽइ॑व । धन्व॑नि । क्रम॑स्व । ऋश॑:ऽइव । रो॒हित॑म् । अन॑वऽग्लायता । सदा॑ ॥१०१.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आहं तनोमि ते पसो अधि ज्यामिव धन्वनि। क्रमस्वर्श इव रोहितमनवग्लायता सदा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । अहम् । तनोमि । ते । पस: । अधि । ज्याम्ऽइव । धन्वनि । क्रमस्व । ऋश:ऽइव । रोहितम् । अनवऽग्लायता । सदा ॥१०१.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 101; मन्त्र » 3

    पदार्थ -

    १. प्रभु कहते हैं कि हे साधक! (अहम्) = मैं (ते पस:) = तेरे राष्ट्र को (आ तनोमि) = सब प्रकार से विस्तारवाला करता हूँ। (इव) = जिस प्रकार (अधिधन्वनि) = धनुष पर (ज्याम्) = डोरी को विस्तृत करते हैं। २. तू (सदा) = सर्वदा (अनवग्लायता) = बिना ग्लानि व थकावटवाले मन के साथ क्रमस्व शत्रुओं पर आक्रमण करनेवाला हो, (इव) = जैसेकि (ऋश:) = एक हिंसक पशु (रोहितम्) = मृगविशेष पर आक्रमण करता है। शत्रुओं को तू इसीप्रकार जीतनेवाला बन, जैसेकि एक हिंस्र पश हिरनों को जीत लेता है।

    भावार्थ -

    राजा सैनिकों को शस्त्रास्त्र से सुसज्जित रक्खे। शस्त्रास्त्र के अनुपात में ही राष्ट्र शक्तिशाली बनता है। सैनिक शक्ति के ठीक होने पर ही राष्ट्र की शक्तियों का विस्तार होता है।

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