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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 139

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 139/ मन्त्र 4
    सूक्त - अथर्वा देवता - वनस्पतिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - सौभाग्यवर्धन सूक्त

    यथो॑द॒कमप॑पुषोऽप॒शुष्य॑त्या॒स्यम्। ए॒वा नि शु॑ष्य॒ मां कामे॒नाथो॒ शुष्का॑स्या चर ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यथा॑ । उ॒द॒कम् । अप॑पुष: । अ॒प॒ऽशुष्य॑ति । आ॒स्य᳡म् । ए॒व । नि । शु॒ष्य॒ । माम् । कामे॑न । अथो॒ इति॑ । शुष्क॑ऽआस्या । च॒र॒ ॥१३९.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यथोदकमपपुषोऽपशुष्यत्यास्यम्। एवा नि शुष्य मां कामेनाथो शुष्कास्या चर ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यथा । उदकम् । अपपुष: । अपऽशुष्यति । आस्यम् । एव । नि । शुष्य । माम् । कामेन । अथो इति । शुष्कऽआस्या । चर ॥१३९.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 139; मन्त्र » 4

    पदार्थ -

    १. (यथा) = जैसे (उदकम् अपपुषः) = जल न पीनेवाले पुरुष का (आस्यम् अपशुष्यति) = मुख सूख जाता है, (एव) = इसीप्रकार हे युवति! तू (माम्) = मुझे अपने प्रति (कामेन निशुष्य) = दीप्त प्रेम से सुखाकर (अथो) = अब स्वयं भी मेरे प्रति प्रेम से (शुष्कास्या चर) = शुष्क मुखवाली होकर विचर।

    भावार्थ -

    जैसे प्यासे को जल का ही ध्यान रहता है, इसीप्रकार ये युवक और युवति परस्पर एक-दूसरे की प्राप्ति की कामनावाले हों ।

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