अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 139/ मन्त्र 1
सूक्त - अथर्वा
देवता - वनस्पतिः
छन्दः - त्र्यवसाना षट्पदा विराड्जगती
सूक्तम् - सौभाग्यवर्धन सूक्त
न्य॑स्ति॒का रु॑रोहिथ सुभगं॒कर॑णी॒ मम॑। श॒तं तव॑ प्रता॒नास्त्रय॑स्त्रिंशन्निता॒नाः। तया॑ सहस्रप॒र्ण्या हृद॑यं शोषयामि ते ॥
स्वर सहित पद पाठनि॒ऽअ॒स्ति॒का । रु॒रो॒हि॒थ॒ । सु॒भ॒ग॒म्ऽकर॑णी । मम॑ । श॒तम् । तव॑ । प्र॒ऽता॒ना: । त्रय॑:ऽत्रिंशत् । नि॒ऽता॒ना: । तया॑ । स॒ह॒स्र॒ऽप॒र्ण्या । हृद॑यम् । शो॒ष॒या॒मि॒ । ते॒ ॥१३९.१॥
स्वर रहित मन्त्र
न्यस्तिका रुरोहिथ सुभगंकरणी मम। शतं तव प्रतानास्त्रयस्त्रिंशन्नितानाः। तया सहस्रपर्ण्या हृदयं शोषयामि ते ॥
स्वर रहित पद पाठनिऽअस्तिका । रुरोहिथ । सुभगम्ऽकरणी । मम । शतम् । तव । प्रऽताना: । त्रय:ऽत्रिंशत् । निऽताना: । तया । सहस्रऽपर्ण्या । हृदयम् । शोषयामि । ते ॥१३९.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 139; मन्त्र » 1
विषय - सुभगंकरणी 'न्यस्तिका'
पदार्थ -
१. एक युवक विद्या आदि गुणों से अपने को इसप्रकार सुशोभित करे कि एक युवति उसके गुणों को सुनकर उसके प्रति प्रेमवाली हो। वह उसे ही जीवन-साथी के रूप में प्राप्त करने की कामनावाली हो। इसीप्रकार युवति के गुण युवक को प्रेमयुक्त करें। युवक कहता है (न्यस्तिका) = निश्चय से दीप्त होनेवाली [अस् दीप्ती] अथवा अविद्यान्कार को परे फेंकनेवाली [अस् क्षेपणे] विद्या का (रुरोहिथ) = मुझमें प्रादुर्भाव हुआ है। यह विद्या (मम सुभगंकरणी) = मेरा सौभाग्य बढ़ानेवाली है। २. हे विद्ये! (शतं तव प्रताना:) = तेरे सैकड़ों प्रतान-फैलाव है, अर्थात् शतवर्षपर्यन्त [आजीवन] होनेवाले तेरे प्रतान हैं, तेरे (त्रयः त्रिंशत्) = तेतीस (निताना:) = नियमित विस्तार हैं, तेतीस देव तेरे ज्ञान का विषय बनते हैं। हे युवति! तया सहस्त्रपण्या-उस सहस्रों प्रकार से पालन करनेवाली विद्या से ते हृदयं शोषयामि तेरे हृदय को शुष्क करता हूँ-अपने प्रति प्रेमाकुल करता हूँ।
भावार्थ -
एक युवक अपने में विद्यादि गुणों का प्रादुर्भाव करके एक युवति को अपने प्रति प्रेममग्न करने का प्रयत्न करे।
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