अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 139/ मन्त्र 5
सूक्त - अथर्वा
देवता - वनस्पतिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - सौभाग्यवर्धन सूक्त
यथा॑ नकु॒लो वि॒च्छिद्य॑ सं॒दधा॒त्यहिं॒ पुनः॑। ए॒वा काम॑स्य॒ विच्छि॑न्नं॒ सं धे॑हि वीर्यावति ॥
स्वर सहित पद पाठयथा॑ । न॒कु॒ल: । वि॒ऽछिद्य॑ । स॒म्ऽदधा॑ति । अहि॑म् । पुन॑: । ए॒व । काम॑स्य । विऽछि॑न्नम् । सम् । धे॒हि॒ । वी॒र्य॒ऽव॒ति॒ ॥१३९.५॥
स्वर रहित मन्त्र
यथा नकुलो विच्छिद्य संदधात्यहिं पुनः। एवा कामस्य विच्छिन्नं सं धेहि वीर्यावति ॥
स्वर रहित पद पाठयथा । नकुल: । विऽछिद्य । सम्ऽदधाति । अहिम् । पुन: । एव । कामस्य । विऽछिन्नम् । सम् । धेहि । वीर्यऽवति ॥१३९.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 139; मन्त्र » 5
विषय - पवित्र प्रेम
पदार्थ -
१. (यथा) = जैसे नकुलः [न-कुला आदाने] कुत्सित कर्मों का आदान न करनेवाला व्यक्ति (अहिं विच्छिद्य) = [आहन्ति] विनाशक वासना को विच्छिन्न करके (पुनः संदधाति) = फिर अपना सम्यक् धारण करता है, एव उसी प्रकार हे (वीर्यावति) = प्रशस्त बलवाली युवति! तू (कामस्य विच्छिन्न संधेहि) = काम के-प्रेमाकुलता के घाव को भरनेवाली हो, अर्थात् तुझे प्राप्त करके मैं स्वस्थ हो जाऊँ। तेरे प्रति मेरा प्रेम वासनात्मक न होकर पवित्र हो।
भावार्थ -
एक युवक का युवति के प्रति पवित्र प्रेम उसका धारण करनेवाला बनता है।
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