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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 59

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 59/ मन्त्र 3
    सूक्त - अथर्वा देवता - ओषधिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - ओषधि सूक्त

    वि॒श्वरू॑पां सु॒भगा॑म॒च्छाव॑दामि जीव॒लाम्। सा नो॑ रु॒द्रस्या॒स्तां हे॒तिं दू॒रं न॑यतु॒ गोभ्यः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि॒श्वऽरू॑पाम् । सु॒ऽभगा॑म् । अ॒च्छ॒ऽआव॑दामि । जी॒व॒लाम् । सा । न॑: । रु॒द्रस्य॑ । अ॒स्ताम् । हे॒तिम् । दू॒रम् । न॒य॒तु॒ । गोभ्य॑: ॥५९.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विश्वरूपां सुभगामच्छावदामि जीवलाम्। सा नो रुद्रस्यास्तां हेतिं दूरं नयतु गोभ्यः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विश्वऽरूपाम् । सुऽभगाम् । अच्छऽआवदामि । जीवलाम् । सा । न: । रुद्रस्य । अस्ताम् । हेतिम् । दूरम् । नयतु । गोभ्य: ॥५९.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 59; मन्त्र » 3

    पदार्थ -

    १. (विश्वरूपाम्) = नीरोगता द्वारा सबको उत्तम रूप देनेवाली, (सुभगाम्) = उत्तम ऐश्वर्यशाली, (जीवलाम्) = जीवनीशक्ति को देनेवाली इस अरुन्धती को (अच्छ वदामि) = लक्ष्य करके कहता हूँ कि (सा) = वह अरुन्धती (रुद्रस्य अस्तां हेतिम्) = हमारी त्रुटियों के परिणामस्वरूप रुद्र [प्रभु] से फेंके गये अस्त्र को (न: गोभ्य:) = हमारी गौओं से (दूरं नयतु) = दूर देश में प्राप्त कराए, अर्थात् अरुन्धती के प्रयोग से हमारे गवादि पशु नीरोग हों-यह उन्हें उत्तम स्वास्थ्य प्राप्त कराए, उन्हें सौभाग्यवाला करे-उनके दूध में यह जीवनशक्ति को स्थापित करनेवाली हो।

    भावार्थ -

    अरुन्धती 'विश्वरूपा, सुभगा व जीवला' है। यह हमारे पशुओं को नीरोग बनाए।

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