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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 60/ मन्त्र 1
अ॒यमा या॑त्यर्य॒मा पु॒रस्ता॒द्विषि॑तस्तुपः। अ॒स्या इ॒च्छन्न॒ग्रुवै॒ पति॑मु॒त जा॒याम॒जान॑ये ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒यम् । आ । या॒ति॒ । अ॒र्य॒मा । पु॒रस्ता॑त् । विसि॑तऽस्तुप: । अ॒स्यै । इ॒च्छन् । अ॒ग्रुवै॑ । पति॑म् । उ॒त । जा॒याम् । अ॒जान॑ये ॥६०.१॥
स्वर रहित मन्त्र
अयमा यात्यर्यमा पुरस्ताद्विषितस्तुपः। अस्या इच्छन्नग्रुवै पतिमुत जायामजानये ॥
स्वर रहित पद पाठअयम् । आ । याति । अर्यमा । पुरस्तात् । विसितऽस्तुप: । अस्यै । इच्छन् । अग्रुवै । पतिम् । उत । जायाम् । अजानये ॥६०.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 60; मन्त्र » 1
विषय - विषितस्तुप 'अर्यमा'
पदार्थ -
१. (पुरस्तात्) = पूर्व दिशा में (वि-षित-स्तुप:) = विशेषरूप से बंधा हुआ है रश्मियों का समुच्य जिसमें, ऐसा (अयम्) = यह (अर्यमा) = सूर्य (आयाति) = आता है। रश्मि-समूह से युक्त सूर्य पूर्व दिशा में उदित होता है। यह सूर्य इस कन्या को भी एक-एक दिन करके यौवन प्राप्त करता है और आज (अस्यै अगृवै) = इस अविवाहित युवति के लिए (पतिम्) = पति को चाहता है, (उत) = और (अजानये) = जायारहित युवक के लिए (जायाम्) = पत्नी को चाहता हुआ यह सूर्य आता है। २. सूर्य अपनी प्रकाशमयी किरणों से युवक व युवतियों को यौवन प्राप्त कराता है और उनमें एक-दूसरे को प्राप्त करने की कामना जगाता है, मानो सूर्य ही इस कार्य को करनेवाला हो। वस्तुत: कन्या का पिता भी 'अर्यमा' है-('अर्यमेति तमाहुर्यों ददाति') = जो कन्या के हाथ को पति के हाथ में देते हैं तथा 'अरीन् यच्छति' नाम-क्रोध-लोभ आदि का नियमन करते हैं, साथ ही सूर्य की भाँति 'विषितस्तुप'-अपने अन्दर ज्ञानरश्मियों के समुच्छ्य को बाँधनेवाले होते हैं।
भावार्थ -
आदर्श पिता सूर्य के समान है। वह अपनी युवति कन्या के लिए पति की कामना करता हुआ एक उत्तम युवक के लिए कन्या का हाथ ग्रहण कराता है।
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