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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 26

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 26/ मन्त्र 2
    सूक्त - मेधातिथिः देवता - विष्णुः छन्दः - त्रिपदा विराड्गायत्री सूक्तम् - विष्णु सूक्त

    प्र तद्विष्णु॑ स्तवते वी॒र्याणि मृ॒गो न भी॒मः कु॑च॒रो गि॑रि॒ष्ठाः। प॑रा॒वत॒ आ ज॑गम्या॒त्पर॑स्याः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । तत् । विष्णु॑: । स्त॒व॒ते॒ । वी॒र्या᳡ण‍ि । मृ॒ग: । न । भी॒म: । कु॒च॒र: । गि॒रि॒ऽस्था: । प॒रा॒ऽवत॑: । आ । ज॒ग॒म्या॒त् । पर॑स्या: ॥२७.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र तद्विष्णु स्तवते वीर्याणि मृगो न भीमः कुचरो गिरिष्ठाः। परावत आ जगम्यात्परस्याः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र । तत् । विष्णु: । स्तवते । वीर्याण‍ि । मृग: । न । भीम: । कुचर: । गिरिऽस्था: । पराऽवत: । आ । जगम्यात् । परस्या: ॥२७.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 26; मन्त्र » 2

    पदार्थ -

    १. (तत्) = [सः] वे सर्वव्यापक [तनु विस्तारे] (विष्णु:) = प्रभु (वीर्याणि) [उदिश्य] = वीर कर्मों का लक्ष्य करके (प्रस्तवते) = खूब ही स्तुति किये जाते हैं। (मृगः) = वे प्रभु ही अन्वेषणीय हैं [मृग अन्वेषणे], (न भीमः) = वे भयंकर नहीं, प्रेम ही भगवान् का रूप है, पापियों को दण्ड भी वे उनके कल्याण के लिए प्रेम से ही देते हैं। (कुचरः) = सम्पूर्ण पृथिवी पर विचरण करनेवाले है अथवा कहाँ नहीं है? [क्वायं न चरतीति वा-नि०] प्रभु तो सर्वत्र हैं। (गिरिष्ठाः) = वेदवाणियों में स्थित हैं, सब वेद प्रभु का ही तो वर्णन कर रहे है [सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति]।२. वे प्रभु (परस्याः परावतः) = दूर-से-दूर होते हुए भी (आजगम्यात्) = हमारे हृदय-देश में आने का अनुग्रह करें। दूर से-दूर विद्यमान उस प्रभु को हम यहाँ हृदय में अनुभव करने का प्रयत्न करें।

    भावार्थ -

    प्रभु के वीरतापूर्ण कर्म स्तुति के योग्य हैं। उन प्रभु का ही हम अन्वेषण करें, वे प्रेमरूप हैं, सर्वत्र हैं, सब वेदमन्त्रों में उनका ही प्रतिपादन हो रहा है। दूर-से-दूर होते हुए भी वे प्रभु हमें यहाँ हदयों में प्राप्त हों।

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