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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 26

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 26/ मन्त्र 3
    सूक्त - मेधातिथिः देवता - विष्णुः छन्दः - त्र्यवसाना षट्पदा विराट्शक्वरी सूक्तम् - विष्णु सूक्त

    यस्यो॒रुषु॑ त्रि॒षु वि॒क्रम॑णेष्वधिक्षि॒यन्ति॒ भुव॑नानि॒ विश्वा॑। उ॒रु वि॑ष्णो॒ वि क्र॑मस्वो॒रु क्षया॑य नस्कृधि। घृ॒तं घृ॑तयोने पिब॒ प्रप्र॑ य॒ज्ञप॑तिं तिर ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यस्य॑ । उ॒रुषु॑ । त्रि॒षु । वि॒ऽक्रम॑णेषु । अ॒धि॒ऽक्षि॒यन्त‍ि । भुव॑नान‍ि । विश्वा॑ । उ॒रु । वि॒ष्णो॒ इति॑ । वि । क्र॒म॒स्व॒ । उ॒रु । क्षया॑य । न॒: । कृ॒धि॒ । घृ॒तम् । घृ॒त॒ऽयो॒ने॒ । पि॒ब॒ । प्रऽप्र॑ । य॒ज्ञऽप॑तिम् । ति॒र॒ ॥२७.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यस्योरुषु त्रिषु विक्रमणेष्वधिक्षियन्ति भुवनानि विश्वा। उरु विष्णो वि क्रमस्वोरु क्षयाय नस्कृधि। घृतं घृतयोने पिब प्रप्र यज्ञपतिं तिर ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यस्य । उरुषु । त्रिषु । विऽक्रमणेषु । अधिऽक्षियन्त‍ि । भुवनान‍ि । विश्वा । उरु । विष्णो इति । वि । क्रमस्व । उरु । क्षयाय । न: । कृधि । घृतम् । घृतऽयोने । पिब । प्रऽप्र । यज्ञऽपतिम् । तिर ॥२७.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 26; मन्त्र » 3

    पदार्थ -

    १. (यस्य) = जिस विष्णु के (उरुषु) = विशाल (त्रिषु विक्रमणेषु) = तीन विक्रमणों-अभिप्राय: पृथिवी, अन्तरिक्ष व धुलोक में (विश्वा भुवनानि अधिक्षियन्ति) = सब प्राणियों का निवास है, हे (विष्णो) = सर्वव्यापक प्रभो! वे आप (उरु विक्रमस्व) = इन लोकों में खूब ही विक्रमवाले होओ। कण-कण में आपका विक्रम दृष्टिगोचर हो। २. हे प्रभो! (न:) = हमारे लिए भी (क्षयाय) = निवास के लिए (उरु कृधि) = प्रभूत धनादि प्राप्त कराइए। हे (घृतयोने) = सम्पूर्ण ज्ञानदीप्ति के आधारभूत प्रभो! (घृतं पिब) = [पायय] हमें भी ज्ञानदीप्ति प्राप्त कराइए और (यज्ञपतिम्) = यज्ञशील व्यक्ति को प्रप्रतिर खूब ही बढ़ानेवाले होओ [तिरति: वर्धनार्थः]

    भावार्थ -

    सम्पूर्ण लोक प्रभु के तीन विक्रमणों में स्थित हैं। प्रभु हमें निवास के लिए आवश्यक धन प्राप्त कराएँ। हमें ज्ञान दें और हम यज्ञशील लोगों का वर्धन करें। [धन के साथ ज्ञान होने पर मनुष्य विलास में न फँसकर, यज्ञशील बनता है]।

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