अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 26/ मन्त्र 5
त्रीणि॑ प॒दा वि च॑क्रमे॒ विष्णु॑र्गो॒पा अदा॑भ्यः। इ॒तो धर्मा॑णि धा॒रय॑न् ॥
स्वर सहित पद पाठत्रीणि॑ । प॒दा । वि । च॒क्र॒मे॒ । विष्णु॑: । गो॒पा: । अदा॑भ्य: । इ॒त: । धर्मा॑णि । धा॒रय॑न् ॥२७.५॥
स्वर रहित मन्त्र
त्रीणि पदा वि चक्रमे विष्णुर्गोपा अदाभ्यः। इतो धर्माणि धारयन् ॥
स्वर रहित पद पाठत्रीणि । पदा । वि । चक्रमे । विष्णु: । गोपा: । अदाभ्य: । इत: । धर्माणि । धारयन् ॥२७.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 26; मन्त्र » 5
विषय - विष्णुः गोपाः अदाभ्यः
पदार्थ -
१. वे (विष्णु:) = व्यापक प्रभु (गोपा:) = गोपायिता [रक्षक] हैं, (अदाभ्यः) = अहिंस्य हैं, किसी से भी अभिभूत करने योग्य नहीं हैं। वे प्रभु (त्रीणि पदा विचक्रमे) = तीन कदमों को रखते हैं, इन लोकों का निर्माण करते हैं, धारण करते हैं और प्रलय करते हैं। २. (इत:) = [इतं गतम् अस्यास्तीति इत:] वे गतिशील प्रभु (धर्माणि) = भूतों को धारण करनेवाले 'पृथिवी,अन्तरिक्ष व युलोक' को (धारयन्) = धारण करते हैं। सब गतियों के स्रोत वे प्रभु ही हैं, वे इन सब लोकों को धारण कर रहे हैं।
भावार्थ -
वे प्रभु व्यापक, रक्षक व अहिंस्य हैं, वे इस ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति, स्थिति व प्रलय करते हैं। सब गतियों के स्रोत होते हुए वे इन लोकों को धारण कर रहे हैं।
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