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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 26

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 26/ मन्त्र 8
    सूक्त - मेधातिथिः देवता - विष्णुः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - विष्णु सूक्त

    दि॒वो वि॑ष्ण उ॒त वा॑ पृ॑थि॒व्या म॒हो वि॑ष्ण उ॒रोर॒न्तरि॑क्षात्। हस्तौ॑ पृणस्व ब॒हुभि॑र्वस॒व्यैरा॒प्रय॑च्छ॒ दक्षि॑णा॒दोत स॒व्यात् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दि॒व: । वि॒ष्णो॒ इति॑ । उ॒त । वा॒ । पृ॒थि॒व्या: । म॒ह: । वि॒ष्णो॒ इति॑ । उ॒रो: । अ॒न्तरि॑क्षात् । हस्तौ॑ । पृ॒ण॒स्व॒ । ब॒हुऽभि॑: । व॒स॒व्यै᳡: । आ॒ऽप्रय॑च्छ । दक्षि॑णात् । आ । उ॒त । स॒व्यात् ॥२७.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दिवो विष्ण उत वा पृथिव्या महो विष्ण उरोरन्तरिक्षात्। हस्तौ पृणस्व बहुभिर्वसव्यैराप्रयच्छ दक्षिणादोत सव्यात् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    दिव: । विष्णो इति । उत । वा । पृथिव्या: । मह: । विष्णो इति । उरो: । अन्तरिक्षात् । हस्तौ । पृणस्व । बहुऽभि: । वसव्यै: । आऽप्रयच्छ । दक्षिणात् । आ । उत । सव्यात् ॥२७.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 26; मन्त्र » 8

    पदार्थ -

    १. हे (विष्णो) = व्यापक प्रभो! (दिवः) = द्युलोक से (उत वा) = और (पृथिव्याः) = इस पृथिवीलोक से और हे विष्णो व्यापक प्रभो! इस( महः उरो: अन्तरिक्षात्) = महान् विशाल अन्तरिक्ष से (बहुभिः वसव्यैः) = बहुत वसुओं के [निवास के लिए आवश्यक धनों के] समूहों से (हस्तौ प्रणस्व) = अपने हाथों को पूरित कीजिए और उस प्रभूत धनराशि को (दक्षिणात्) = दाहिने हाथ से (उत) = और (सव्यात्) = बायें हाथ से (आप्रयच्छ) = हमारे लिए सभी ओर से प्राप्त कराइए।

    भावार्थ -

    प्रभु हमें तीनों लोकों के धनों को प्राप्त करानेवाले हों। प्रभु हमें घलोक से 'प्रकाश', अन्तरिक्ष से 'विशालता' व पृथिवी से 'दृढ़ता' प्राप्त कराएँ। हमारा मस्तिष्क दीस हो, हृदय विशाल हो तथा शरीर दृढ़ हो।

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