अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 73/ मन्त्र 6
उप॑ द्रव॒ पय॑सा गोधुगो॒षमा घ॒र्मे सि॑ञ्च॒ पय॑ उ॒स्रिया॑याः। वि नाक॑मख्यत्सवि॒ता वरे॑ण्योऽनुप्र॒याण॑मु॒षसो॒ वि रा॑जति ॥
स्वर सहित पद पाठउप॑ । द्र॒व॒ । पय॑सा । गो॒ऽधु॒क् । ओ॒षम् । आ । घ॒र्मे । सि॒ञ्च॒ । पय॑: । उ॒स्रिया॑या: । वि । नाक॑म् । अ॒ख्य॒त् । स॒वि॒ता । वरे॑ण्य: । अ॒नु॒ऽप्र॒यान॑म् । उ॒षस॑: । वि । रा॒ज॒ति॒ ॥७७.६॥
स्वर रहित मन्त्र
उप द्रव पयसा गोधुगोषमा घर्मे सिञ्च पय उस्रियायाः। वि नाकमख्यत्सविता वरेण्योऽनुप्रयाणमुषसो वि राजति ॥
स्वर रहित पद पाठउप । द्रव । पयसा । गोऽधुक् । ओषम् । आ । घर्मे । सिञ्च । पय: । उस्रियाया: । वि । नाकम् । अख्यत् । सविता । वरेण्य: । अनुऽप्रयानम् । उषस: । वि । राजति ॥७७.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 73; मन्त्र » 6
विषय - गोधुक्
पदार्थ -
१. हे (गोधुक्) = इस बेवधेनु का दोहन करनेवाले साधक! तू (पयसा) = शक्तियों के आप्यायन के हेतु से (उपद्रव) = उस प्रभु के समीप प्राप्त हो। इसी दृष्टि से तू (घर्मे) = ज्ञानदीप्ति के निमित्त (उस्त्रियायाः) = गौ के (ओषम्) = ताजा [गर्मी को लिए हुए] (पय: आसिञ्च) = दूध को अपने में सिक्त कर । गौ का ताजा दूध ही अमृत है-('पीयूषोऽभिनवं पयः')। = इस अमत के पान मे शाकिन का वर्धन होता है, और बुद्धि-वृद्धि के द्वारा ज्ञानदीप्ति प्राप्त होती है। २. ऐसा करने पर (वरेण्यः सविता) = वह वरणीय, प्रेरक प्रभु तेरे लिए (नाकं वि अख्यत्) = दुःख से असभिन्न [न अकं] स्वर्ग को प्रकाशित करते हैं। यह साधक (उषस:) = दोषों को दग्ध कर देनेवाली 'विशोका ज्योतिष्मती ऋतम्भरा प्रज्ञा के (प्रयाणम् अनु) = प्रकर्षेण प्राप्त होने के अनुपात में [या प्रापणे] (विराजति) = दौस जीवनवाला होता है।
भावार्थ -
हम वेदवाणी का दोहन करनेवाले बनकर शक्तियों का आप्यायन करते हुए प्रभु को प्राप्त हों। ज्ञानदीति के निमित्त ताजे गोदुग्ध का ही सेवन करें। प्रभु हमारे लिए मोक्ष को प्राप्त कराएंगे। प्राणसाधना द्वारा ऋतम्भरा प्रज्ञा को प्राप्त होकर हम दीप्तजीवनवाले बनें।
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