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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 73

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 73/ मन्त्र 4
    सूक्त - अथर्वा देवता - घर्मः, अश्विनौ छन्दः - जगती सूक्तम् - धर्म सूक्त

    यदु॒स्रिया॒स्वाहु॑तं घृ॒तं पयो॒ऽयं स वा॑मश्विना भा॒ग आ ग॑तम्। माध्वी॑ धर्तारा विदथस्य सत्पती त॒प्तं घ॒र्मं पि॑बतं रोचने दि॒वः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । उ॒स्रिया॑सु । आऽहु॑तम् । घृ॒तम् । पय॑: । अ॒यम् । स: । वा॒म् । अ॒श्वि॒ना॒ । भा॒ग: । आ । ग॒त॒म् । माध्वी॒ इति॑ । ध॒र्ता॒रा॒ । वि॒द॒थ॒स्य॒ । स॒त्प॒ती॒ इति॑ सत्ऽपती । त॒प्तम् । घ॒र्मम् । पि॒ब॒त॒म् । रो॒च॒ने । दि॒व: ॥७७.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदुस्रियास्वाहुतं घृतं पयोऽयं स वामश्विना भाग आ गतम्। माध्वी धर्तारा विदथस्य सत्पती तप्तं घर्मं पिबतं रोचने दिवः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । उस्रियासु । आऽहुतम् । घृतम् । पय: । अयम् । स: । वाम् । अश्विना । भाग: । आ । गतम् । माध्वी इति । धर्तारा । विदथस्य । सत्पती इति सत्ऽपती । तप्तम् । घर्मम् । पिबतम् । रोचने । दिव: ॥७७.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 73; मन्त्र » 4

    पदार्थ -

    १. हे (अश्विना) = प्राणापानो! (यत्) = जो (उस्त्रियासु) = गौवों में (घृतम्) = मलों का क्षरण करने तथा दीप्ति देनेवाला (पय:) = दूध आहुतम् प्रभु द्वारा दिया गया है, स्थापित हुआ है, (अयं स:) = यह (वां भाग:) = आपका भजनीय अंश है। (आगतम्) = आप आओ, उस दूध के ग्रहण के लिए प्राप्त होओ। २. हे प्राणापानो! आप (माध्वी) = मधुविद्या के बेदिता हो। प्रत्येक पदार्थ में प्रभु की महिमा को देखना ही मधुविद्या है। प्राणापान की साधना होने पर यह साधक सर्वत्र प्रभु की महिमा को देखता है। अथवा (माध्वी) = आप जीवन को मधुर बनानेवाले हो। (विदथस्य धारा) = यज्ञों को धारण करनेवाले हो । (सत्पती) = सब सत्कर्मों के रक्षक हो। (दिवः रोचने) = मस्तिष्करूप धुलोक के दीप्त होने पर (तप्तं धर्मम्) = दीस हुए-हुए ज्ञानसूर्य को [Sunshine धर्म] (पिबतम्) = अपने अन्दर ग्रहण करो। प्राणापान का साधक ज्ञान का अपने अन्दर निरन्तर ग्रहण करता है।

    भावार्थ -

    प्राणसाधक को चाहिए कि वह गोदुग्ध का सेवन करे। यह प्राणसाधना उसे मधुर जीवनवाला, यज्ञशील, उत्तम कर्मों का रक्षक व ज्ञानप्रकाश को अपने अन्दर लेनेवाला बनाएगी।

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