अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 10/ मन्त्र 7
सूक्त - अथर्वाचार्यः
देवता - विराट्
छन्दः - आर्च्यनुष्टुप्
सूक्तम् - विराट् सूक्त
य॒ज्ञर्तो॑ दक्षि॒णीयो॒ वास॑तेयो भवति॒ य ए॒वं वेद॑ ॥
स्वर सहित पद पाठय॒ज्ञऽऋ॑त: । द॒क्षि॒णीय॑: । वास॑तेय: । भ॒व॒ति॒ । य: । ए॒वम् । वेद॑ ॥१०.७॥
स्वर रहित मन्त्र
यज्ञर्तो दक्षिणीयो वासतेयो भवति य एवं वेद ॥
स्वर रहित पद पाठयज्ञऽऋत: । दक्षिणीय: । वासतेय: । भवति । य: । एवम् । वेद ॥१०.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 10;
पर्यायः » 1;
मन्त्र » 7
विषय - दक्षिणाग्नि
पदार्थ -
१. अब एक ग्राम के घरों में तो अराजकता की स्थिति समाप्त हो गई, 'परन्तु दो ग्रामों में कोई संघर्ष उपस्थित हो जाने पर क्या किया जाए', यह समस्या विचारणीय हो गई। परिणामतः (सा उदक्रामत्) = वह विराट् अवस्था और उत्क्रान्त हुई तथा (सा) = वह (दक्षिणाग्नौ न्यक्रामत्) = दक्षिणाग्नि में स्थित हुई। प्रत्येक ग्राम का दक्षिण [कुशल] अग्नि [नेता] इस सभा में उपस्थित होता है। इससे सभा का नाम ही दक्षिणाग्नि हो गया है। २. (यः एवं वेद) = जो इस 'दक्षिणाग्नि' संगठन के महत्व को समझ लेता है वह (यजऋत:) = संगठन में गतिवाला, (दक्षिणीय:) = [दक्षिण fame] यशस्वी व (वासतेयः) = लोगों को उत्तमता से बसानेवाला (भवति) = होता है। साथ ही 'दक्षिणानि' के सभ्यों को कुछ दक्षिणा भी दी जाती है तथा निवासस्थान भी दिया जाता है। ये दक्षिणाग्नि के सभ्य दक्षिणीय व बासतेय हैं। इन्हें अपने ग्राम से दूर आना पड़ता है, अत: यह व्यवस्था आवश्यक हो जाती है।
भावार्थ -
ग्रामों के पारस्परिक कलहों को निपटाने के लिए ग्रामों के कुशल नेताओं की जो सभा बनती है, वह 'दक्षिणाग्नि' कहलाती है। जो कुशल नेता इस संगठन में उपस्थित होते हैं, वे 'दक्षिणीय व बासतेय' होते हैं।
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