अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 10/ मन्त्र 13
सूक्त - अथर्वाचार्यः
देवता - विराट्
छन्दः - विराड्गायत्री
सूक्तम् - विराट् सूक्त
यन्त्य॑स्या॒मन्त्र॑णमामन्त्र॒णीयो॑ भवति॒ य ए॒वं वेद॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयन्ति॑ । अ॒स्य॒ । आ॒ऽमन्त्र॑णम् । आ॒ऽम॒न्त्र॒णीय॑: । भ॒व॒ति॒ । य: । ए॒वम् । वेद॑॥१०.१३॥
स्वर रहित मन्त्र
यन्त्यस्यामन्त्रणमामन्त्रणीयो भवति य एवं वेद ॥
स्वर रहित पद पाठयन्ति । अस्य । आऽमन्त्रणम् । आऽमन्त्रणीय: । भवति । य: । एवम् । वेद॥१०.१३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 10;
पर्यायः » 1;
मन्त्र » 13
विषय - आमन्त्रण [U.N.0.]
पदार्थ -
१. 'यदि महाद्वीपों का कलह उपस्थित हो जाए तो क्या करें', यह विचार उपस्थित होने पर (सा उदकामत्) = वह विराट् अवस्था और उत्क्रान्त हुई और (सा आमन्त्रणे न्यक्रामत्) = वह 'आमन्त्रण' में आकर विश्रान्त हुई। यह इस पृथिवी पर सबसे बड़ा संगठन है। इसमें सब महाद्वीपों से प्रतिनिधि आमन्त्रित होते हैं और वे मिलकर समस्याओं को सुलझाने का यल करते हैं। २. (यः एवं वेद) = जो इसप्रकार इस आमन्त्रण के बनाने की बात को समझता है, वही (आमन्त्रणीयः भवति) = इस आमन्त्रण का प्रधान बनने के योग्य समझा जाता है और सब (सदस्य अस्य) = इसके पुकारने पर (आमन्त्रणं यन्ति) = 'आमन्त्रण' में जाते हैं-आमन्त्रण में उपस्थित होकर गम्भीर विषयों पर अपना-अपना विचार देने का प्रयत्न करते हैं। यह आमन्त्रण ही 'विश्वशान्ति' का साधन बनता है। यह मानवजाति का सर्वोत्तम संगठन है। इसके होने पर भी कुछ-न-कुछ विराट् अवस्था रह ही जाती है। विराट् अवस्था ही तो उत्क्रान्त होकर यहाँ तक पहुँची है। मनुष्य की सहज अपूर्णता संगठन की अपूर्णता का कारण होगी ही।
भावार्थ -
'आमन्त्रण' वह संगठन है, जो महाद्वीपों के पारस्परिक कलहों को निपटाकर मनुष्यों को युद्धों की स्थिति से ऊपर उठाता है। युद्धों के अभाव में ही वास्तविक उन्नति सम्भव हैं|
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