अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 10/ मन्त्र 4
सूक्त - अथर्वाचार्यः
देवता - विराट्
छन्दः - याजुषी जगती
सूक्तम् - विराट् सूक्त
सोद॑क्राम॒त्साह॑व॒नीये॒ न्यक्रामत्।
स्वर सहित पद पाठसा । उत् । अ॒क्रा॒म॒त् । सा । आ॒ऽह॒व॒नीये॑ । नि । अ॒क्रा॒म॒त् ॥१०.४॥
स्वर रहित मन्त्र
सोदक्रामत्साहवनीये न्यक्रामत्।
स्वर रहित पद पाठसा । उत् । अक्रामत् । सा । आऽहवनीये । नि । अक्रामत् ॥१०.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 10;
पर्यायः » 1;
मन्त्र » 4
विषय - आहवनीय [ग्रामपंचायत]
पदार्थ -
१. गार्हपत्य-व्यवस्था हो जाने पर प्रत्येक घर में तो शान्ति स्थापित हो गई, 'परन्तु यदि दो घरों में परस्पर कोई संघर्ष उपस्थित हो जाए तो उसके लिए क्या किया जाए', इस विचार के उपस्थित होने पर (सा उदक्रामत्) = विराट् व्यवस्था में और उन्नति हुई और (सा) = वह विराट् (आहवनीये न्यक्रामत्) = आहवनीय में विश्रान्त हुई। घरों के प्रतिनिधियों की एक सभा बनी। यह आहवनीय कहलायी, जिसमें प्रतिनिधि आहूत होते हैं। २. इस आहवनीय का भी एक मुखिया बना, वही 'ग्राम-प्रधान' कहलाया। (अस्य देवहूतिं देवाः यन्ति) = इस प्रधान की सभा के ज्ञानी प्रतिनिधियों [देवों की पुकार होने] पर वे देवसभा में जाते हैं। 'आहवनीय' में वे सब देव उपस्थित होते है। उसमें घरों के पारस्परिक कलह को सुनकर वे उसका उचित निर्णय करते हैं। इसप्रकार घरों में परस्पर मेल बना रहता है। (यः एवं वेद) = जो इसप्रकार आहवनीय के महत्त्व को समझ लेता है, वह (देवानाम् प्रियः भवति) = ज्ञानी प्रतिनिधियों का प्रिय होता है।
भावार्थ -
घरों के पारस्परिक कलहों को समाप्त करने के लिए एक ग्रामसभा बनी। यही 'आहवनीय' कहलायी। ऐसे कलहों के पैदा होने पर प्रधान की पुकार पर सब देव [ज्ञानी प्रतिनिधि] उपस्थित होते हैं और सब पक्षों को सुनकर उचित निर्णय करते हैं।
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