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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 10/ मन्त्र 4
    ऋषिः - अथर्वाचार्यः देवता - विराट् छन्दः - याजुषी जगती सूक्तम् - विराट् सूक्त
    79

    सोद॑क्राम॒त्साह॑व॒नीये॒ न्यक्रामत्।

    स्वर सहित पद पाठ

    सा । उत् । अ॒क्रा॒म॒त् । सा । आ॒ऽह॒व॒नीये॑ । नि । अ॒क्रा॒म॒त् ॥१०.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सोदक्रामत्साहवनीये न्यक्रामत्।

    स्वर रहित पद पाठ

    सा । उत् । अक्रामत् । सा । आऽहवनीये । नि । अक्रामत् ॥१०.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 10; पर्यायः » 1; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ब्रह्म विद्या का उपदेश।

    पदार्थ

    (सा) वह [विराट्] (उत् अक्रामत्) ऊपर चढ़ी, (सा) (आहवनीये) यज्ञयोग्य व्यवहार में (नि अक्रामत्) नीचे उतरी ॥४॥

    भावार्थ

    उस विराट् की महिमा प्रत्येक उत्तम कर्म में प्रकट होती है ॥४॥

    टिप्पणी

    ४−(आहवनीये) आङ्+हु दानादानादनेषु-अनीयर्, यद्वा आहवन-छ-प्रत्ययः। यजनीये व्यवहारे। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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    विषय

    आहवनीय [ग्रामपंचायत]

    पदार्थ

    १. गार्हपत्य-व्यवस्था हो जाने पर प्रत्येक घर में तो शान्ति स्थापित हो गई, 'परन्तु यदि दो घरों में परस्पर कोई संघर्ष उपस्थित हो जाए तो उसके लिए क्या किया जाए', इस विचार के उपस्थित होने पर (सा उदक्रामत्) = विराट् व्यवस्था में और उन्नति हुई और (सा) = वह विराट् (आहवनीये न्यक्रामत्) = आहवनीय में विश्रान्त हुई। घरों के प्रतिनिधियों की एक सभा बनी। यह आहवनीय कहलायी, जिसमें प्रतिनिधि आहूत होते हैं। २. इस आहवनीय का भी एक मुखिया बना, वही 'ग्राम-प्रधान' कहलाया। (अस्य देवहूतिं देवाः यन्ति) = इस प्रधान की सभा के ज्ञानी प्रतिनिधियों [देवों की पुकार होने] पर वे देवसभा में जाते हैं। 'आहवनीय' में वे सब देव उपस्थित होते है। उसमें घरों के पारस्परिक कलह को सुनकर वे उसका उचित निर्णय करते हैं। इसप्रकार घरों में परस्पर मेल बना रहता है। (यः एवं वेद) = जो इसप्रकार आहवनीय के महत्त्व को समझ लेता है, वह (देवानाम् प्रियः भवति) = ज्ञानी प्रतिनिधियों का प्रिय होता है।

    भावार्थ

    घरों के पारस्परिक कलहों को समाप्त करने के लिए एक ग्रामसभा बनी। यही 'आहवनीय' कहलायी। ऐसे कलहों के पैदा होने पर प्रधान की पुकार पर सब देव [ज्ञानी प्रतिनिधि] उपस्थित होते हैं और सब पक्षों को सुनकर उचित निर्णय करते हैं।

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    भाषार्थ

    (सा) वह [गृहमेधरूप में उत्क्रान्त] गार्हपत्य व्यवस्थारूपी विराट् (उदक्रामत्) उत्क्रान्त हुई (सा) वह (आहवनीये) आहवनीय में (न्यक्रामत्) अवतीर्ण हुई।

    टिप्पणी

    [अभी तक गार्हपत्य व्यवस्था उस ज्ञानी व्यक्ति के जीवन के साथ सीमित थी। उस ने अन्यों का आह्वान किया, आस-पास रहने वालों को बुलाया और उन्हें भी गार्हपत्य व्यवस्था के लाभ समझाए और आहवनीय व्यवस्था की चर्चा की]।

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    विषय

    ‘विराड्’ के ६ स्वरूप गार्हपत्य, आहवनीय, दक्षिणाग्नि, सभा, समिति और आमन्त्रण।

    भावार्थ

    (सा) वह जब (उद् अक्रामत्) ऊपर उठी, विशालरूप में प्रकट हुई तब (सा आहवनीये) वह अहवनीय या द्यौरूप में (नि अक्रमत) उतर आई अर्थात् प्रकट हुई। द्यौराहवनीयः। श० ८। ६। ३। ११॥ इन्द्रो ह्याहवनीयः। श०२। ७। १। ३८॥ यजमान आहवनीयः। पुरुषस्य मुखमेव आहवनीयः। कौ० १७। ७॥ यज्ञस्य शिर आहवनीयः। श० ६। ५। २। १॥ प्राणोदानावेवाहवनीयश्च गार्हपत्यः। श० २ । २ । २ । १८॥ द्यौ, इन्द्र, जीव, यजमान, पुरुष, पुरुष का मुख, यज्ञ का मुख, और प्राण आहवनीय के रूप हैं॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वाचार्य ऋषिः विराड् देवता। १ त्रिपदार्ची पंक्तिः। २,७ याजुष्यो जगत्यः। ३,९ सामन्यनुष्टुभौ। ५ आर्ची अनुष्टुप्। ७,१३ विराट् गायत्र्यौ। ११ साम्नी बृहती। त्रयोदशर्चं पर्यायसूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Virat

    Meaning

    Virat ascended and evolved and settled in the Ahavaniya Agni, sacred fire of the home with social obligations and dedication to the community as a sacred institution.

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    Translation

    She moved up. She entered the Ahavaniya (the eastern sacrificial fire; fire of invocations and offerings).

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    Translation

    This mounted up, this entered in the Ahavaniya fire.

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    Translation

    When matter manifested itself in different physical forms, it assumed the shape of sky, lightning, Yajna and breaths.

    Footnote

    द्यौरा हवनीयः श० 8-6-3-11 sky is आहवनीय! इन्द्रो ह्याहवनीयः श० 2-7-1-38 Lightning is Ahvniya यज्ञस्य शिर आहवनीयः श० 6-5-2-1 प्राणोदानायेवनीयश्र गार्हपत्यः श० 2-2-2-18 Prana and Udana are Ahvniya.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४−(आहवनीये) आङ्+हु दानादानादनेषु-अनीयर्, यद्वा आहवन-छ-प्रत्ययः। यजनीये व्यवहारे। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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