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अथर्ववेद के काण्ड - 8 के सूक्त 10 के मन्त्र
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अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 10/ मन्त्र 2
ऋषिः - अथर्वाचार्यः
देवता - विराट्
छन्दः - साम्न्युष्णिक्
सूक्तम् - विराट् सूक्त
65
तस्या॒ इन्द्रो॑ व॒त्स आसी॑च्चम॒सः पात्र॑म्।
स्वर सहित पद पाठतस्या॑: । इन्द्र॑: । व॒त्स: । आसी॑त् । च॒म॒स: । पात्र॑म् ॥१४.२॥
स्वर रहित मन्त्र
तस्या इन्द्रो वत्स आसीच्चमसः पात्रम्।
स्वर रहित पद पाठतस्या: । इन्द्र: । वत्स: । आसीत् । चमस: । पात्रम् ॥१४.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
ब्रह्मविद्या का उपदेश।
पदार्थ
(इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् जीव (तस्याः) उस [विराट्] का (वत्सः) उपदेष्टा, और (चमसः) अन्न का आधार [ब्रह्म] (पात्रम्) रक्षासाधन (आसीत्) था ॥२॥
भावार्थ
ऐश्वर्यवान् पुरुष परमेश्वरशक्ति का सदा उपदेश करते हैं ॥२॥
टिप्पणी
२−(चमसः) अ० ६।४७।३। अन्नाधारः परमेश्वरः। अन्यत् पूर्ववत् ॥
विषय
देवों द्वारा 'ऊर्जा' का दोहन
पदार्थ
१. (सा उदक्रामत्) = वह विराट् उत्क्रान्त हुई। (सा देवान् आगच्छत्) = वह देवों को-ज्ञानी पुरुषों को प्राप्त हुई। (तां देवाः उपाह्वयन्त) = उसे देवों ने पुकारा कि (उर्जे एहि इति) = हे बल व प्राणशक्ते! आओ तो। (तस्या:) = उस विराट् का (वत्सः) = प्रिय यह देव (इन्द्रः) = इन्द्रियों का अधिष्ठाता [जितेन्द्रिय पुरुष] था। (चमस:) = ये सिर ही (पात्रम्) = रक्षासाधन हैं। देवलोग इस (चमस्) = शिरोभाग को ठीक रखने से ही अपने पर शासन करते हुए इन्द्रियों के दास व विषयासक्त नहीं होते। २. (ताम्) = उस विराट् को (देव:) = उस प्रकाशमय जीवनवाले (सविता) = अपने अन्दर सोम का सवन करनेवाले पुरुष ने (अधोक्) = दुहा । उत्तम शासन-व्यवस्था होने पर शान्त वातावरण में देववृत्ति के पुरुष अपने जीवन को विषय-प्रवण न बनाकर जितेन्द्रिय बनें और सोम-सम्पादन में प्रवृत्त हुए। (तां ऊर्जाम्) = उस बल व प्राणशक्ति को (देवा:) = देव (उपजीवन्ति) = अपना जीवन आधार बनाते है। (यः एवं वेद) = जो इसप्रकार ऊर्जा के महत्व को समझ लेता है वह (उपजीवनीयः भवति) = औरों के जीवन का भी आधार बनता है औरों का उपजीव्य होता है।
भावार्थ
राष्ट्र-व्यवस्था के शान्त होने पर जितेन्द्रिय देववृत्ति के पुरुष सोम का शरीर में रक्षण करते हुए 'बल व प्राणशक्ति' का दोहन करते हैं और अपने जीवन को उत्तम बनाते हुए औरों के लिए भी सहायक एवं मार्गदर्शक होते हैं।
भाषार्थ
इन्द्रादिदेवताकराज्य (आधिदैविकार्थ) —(तस्याः) उस विराट-गौ का (वत्सः) बछड़ा (आसीत्) था (इन्द्रः) इन्द्र (चमसः) और मेघ था (पात्रम्) रक्षा और पालन का साधन। वैश्यप्रकृतिक राज्य (आधिभौतिकार्थ) —(तस्याः) उस विराटरूपी गौ का (वत्सः) बछड़ा (आसीत्) था (इन्द्रः) वाणिज्य-प्रवृत्ति वाला राजा, (चमसः) और मेघ था (पात्रम्) रक्षा पालन का साधन।
टिप्पणी
इन्द्रादिदेवताकराज्य (आधिदैविकार्थ) —[इन्द्रः= विद्युत् “वायुर्वेन्द्रो वा मध्यस्थानः” (निरुक्त), मध्यस्थानः= अन्तरिक्षस्थानः। “चमसः मेघनाम" (निघं० १।१०)। मेघ खाद्यपदार्थों की उत्पत्ति का कारण है, अतः “चमस'" है। यह "चमस" है पाप्र अर्थात् रक्षा और पालन का साधन, पा (रक्षणे) + त्रैङ् पालने। चमस = चमु अदने (भ्वादिः); चमु भक्षणे (स्वादिः)]। वैश्यप्रकृतिक राज्य (आधिभौतिकार्थ) —[इन्द्रः= यद्यपि इन्द्र का अर्थ है ऐश्वर्य वाला राजा। परन्तु मन्त्र में वैश्यप्रवृत्ति वाला राजा अभिप्रेत है। क्योंकि मन्त्र (१) में "ऊर्जा" पद द्वारा विराट का आह्वान किया है। तथा “इन्द्रमहं वणिजं चोदयामि" (अथर्व० ३।१५।१) में इन्द्र को वणिक् कहा भी है। "चमसः मेघनाम" (निघं० १।१०)। चमसः= चमु अदने (भ्वादिः); मेघ अन्नोत्पादन द्वारा सहायक है, अतः उसे "चमस" कहा है। इस प्रकार "मेघ" रक्षा पालन का साधन है। पात्रम् =पा (रक्षणे)+त्रम् (त्रैङ् पालने)]।
विषय
विराड् रूप गौ से ऊर्जा, पुण्य गन्ध, तिरोधा और विष का दोहन।
भावार्थ
(सा उत् अक्रामत्) वह विराट् उठी, (सा देवान् आगच्छत्) वह देवों के पास आगई, (तां देवाः) उसको देवों ने (उर्जे एहि इति उप अह्वयन्त) ऊर्जे ! आओ इस प्रकार सादर बुलाया। (तस्याः इन्द्रः वत्सः आसीत्) उसका इन्द्र=विद्युत् वत्स था। और (चमसः पात्रम्) चमस पात्र था। (तां देवः सविता अधोक्) उसको देव सविता ने दुहा। (ताम् ऊर्जाम् एव अधोक्) उससे ऊर्ज तेजोमय वीर्य ही प्राप्त किया। (ताम् ऊर्जाम् देवाः उपजीवन्ति) उस ऊर्ज तेजोमय वीर्य पदार्थ पर देवगण जीवन धारण करते हैं। (यः एवं वेद) जो इस प्रकार का रहस्य जानता है वह (उपजीवनीयः भवति) देवों को भी जीवन देने में समर्थ होता है। देव प्राण हैं, इन्द्र आत्मा है, शिरोभाग चमसपात्र है। सविता मुख्य प्राण ने विराट् अन्न में से ऊर्ज, बल का दोहन किया। देव अर्थात् प्राण उसी ऊर्ज अर्थात् वीर्य से अनुप्राणित हैं। महाब्रह्माण्ड में दिव्य पदार्थ अग्नि आदि देव हैं, इन्द्र अर्थात् विद्युत् वत्स है। आकाश चमस पात्र है। उस ब्रह्ममयी विराट् शक्ति से सूर्य ने तेज प्राप्त किया उससे ही समस्त पदार्थ अनुप्राणित हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वाचार्य ऋषिः। विराट् देवता। १, १३ चतुष्पादे साम्नां जगत्यौ। १०,१४ साम्नां वृहत्यौ। १ साम्नी उष्णिक्। ४, १६ आर्च्याऽनुष्टुभौ। ९ उष्णिक्। ८ आर्ची त्रिष्टुप्। २ साम्नी उष्णिक्। ७, ११ विराड्गायत्र्यौ। ५ चतुष्पदा प्राजापत्या जगती। ६ साम्नां बृहती त्रिष्टुप्। १५ साम्नी अनुष्टुप्। षोडशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Virat
Meaning
Of her, Indra, electric energy of the middle region, was the recipient child, and chamas, the cloud, was the bowl.
Translation
The resplendent self was her calf; the bowl was the milking-pot.
Translation
Indra, the electricity was the calf of this and chamas, themiddle region its milking pot.
Translation
The glorious soul was her preacher, and God, the Guardian.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(चमसः) अ० ६।४७।३। अन्नाधारः परमेश्वरः। अन्यत् पूर्ववत् ॥
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