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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 10/ मन्त्र 10
    ऋषिः - अथर्वाचार्यः देवता - विराट् छन्दः - साम्नी बृहती सूक्तम् - विराट् सूक्त
    52

    अ॒पो वा॑मदे॒व्यं य॒ज्ञं य॑ज्ञाय॒ज्ञियं॒ य वेद॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒प: । वा॒म॒ऽदे॒व्यम् । य॒ज्ञम् । य॒ज्ञा॒य॒ज्ञिय॑म् । य: । ए॒वम् । वेद॑ ॥११.१०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अपो वामदेव्यं यज्ञं यज्ञायज्ञियं य वेद ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अप: । वामऽदेव्यम् । यज्ञम् । यज्ञायज्ञियम् । य: । एवम् । वेद ॥११.१०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 10; पर्यायः » 2; मन्त्र » 10
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ब्रह्मविद्या का उपदेश।

    पदार्थ

    (रथन्तरम्) रथन्तर [रमणीय पदार्थों से पार लगानेवाला, जगत्] (एव) ही (व्यचः) विस्तृत (बृहत्) बृहत् [बड़े आकाश] से (ओषधीः) अन्न आदि ओषधियों को, और (अपः) सब प्रजाओं और (वामदेव्यम्) वामदेव [मनोहर परमात्मा] से जताये गये [पञ्चभूत] से (यज्ञम्) पूजनीय व्यवहार और (यज्ञायज्ञियम्) सब यज्ञों के हितकारी [वेदज्ञान] को (अस्मै) उस [पुरुष] के लिये (दुहे) दोहता है, (यः एवम् वेद) जो ऐसा जानता है ॥९, १०॥

    भावार्थ

    ब्रह्मज्ञानी पुरुष को संसार के सब पदार्थ सुखदायक होते हैं ॥९, १०॥

    टिप्पणी

    ९, १०−(अस्मै) ब्रह्मज्ञानिने (दुहे) द्विकर्मकः। दुग्धे। प्रपूरयति (व्यचः) विस्तृतम्। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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    विषय

    रथन्तर, बृहत, वामदेव्य, यज्ञायजिय

    पदार्थ

    १. (देवा:) = देववृत्ति के पुरुषों ने (रथन्तरेण) = पृथिवी से (ओषधी: एव अदुह्रन्) ओषधियों का ही दोहन किया। ये ओषधियाँ ही उनका भोजन बनी। (बृहता) = धुलोक से (व्यच:) = विस्तार को [Expanse, Vastness] दोहा। धुलोक की भाँति ही अपने हदयाकाश को विशाल बनाया। विशालता ही तो धर्म है। (वामदेव्येन) = प्राण से-प्राणशक्ति से इन्होंने (अप:) = कर्मों का दोहन किया-प्राणशक्ति-सम्पन्न बनकर ये क्रियाशील हुए। (यज्ञायज्ञियेन) = चन्द्रमा के हेतु से-आहाद प्राप्ति के हेतु से [चदि आहादे] (यज्ञम्) = इन्होंने यज्ञों को अपनाया। २. (एवम्) = इसप्रकार यह जो विराट को वेद-ठीक से समझ लेता है, (असौ) = इस पुरुष के लिए (रथन्तरम्) = विराट का पृथिवी रूपी स्तन-(ओषधी: एव दुहे) = ओषधियों का दोहन करता है, (बृहत्) = धुलोकरूप स्तन (व्यचः) = हृदय की विशालता को प्राप्त कराता है। (वामदेव्यम्) = प्राणशक्तिरूप स्तन अपः कर्मों को प्राप्त कराता है और (यज्ञायज्ञियम्) = चन्द्ररूप स्तन यज्ञों को प्राप्त कराता है, अर्थात् यज्ञ करके यह वास्तविक आहाद को अनुभव करता है।

     

    भावार्थ

    विराटप कामधेनु हमें 'औषधियों, हृदय की विशालता, कर्म व यज्ञ' को प्रास कराती है।

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    भाषार्थ

    (अस्मै) इसके लिये (रथंतरम्) रथंतर स्तन [पृथिवी] (ओषधीः एव) ओषधियों का ही (दुहे) दोहन करती है (बृहत्) बृहत् स्तन (व्यचः१) विस्तार [अन्तरिक्षरूपी] का [दोहन करता है] (वामदेव्यम्) वामदेव्य स्तन (अपः) जल का [दोहन करता है], (यज्ञायज्ञियं) और यज्ञायज्ञिय स्तन (यज्ञम) यज्ञ का [दोहन करता है], (यः) जो कि (एवम्) इस प्रकार [ओषधि आदि का जीवन के साधन] (वेद) जानता है।

    टिप्पणी

    [रथंतर, बृहत्, वामदेव्य और यज्ञायज्ञिय - चार स्तन हैं, विराट् रूपी गौ के और ओषधि आदि चार दुग्धरूप हैं, विराट्-रूपी गौ के। जो व्यक्ति इस तत्त्व को जानता है वह स्वयं इन ओषधि आदि को प्राप्त करने में यत्नवान् होता है। वैदिक सिद्धान्तानुसार ज्ञान का पर्यवसान क्रम में होता है। यथा 'आम्नायस्य क्रियार्थत्वादानर्थक्यमतदर्थानाम्' (उत्तरमीमांसा) अर्थात् वैदिक फलश्रुतियां कियार्थक हैं, जीवनचर्या के लिये हैं, जीवनचर्या के अभाव में, फलश्रुतियां व्यर्थ अर्थात् निष्प्रयोजन हो जायेंगी]। [१. व्यचः का अर्थ है, विस्तार। "व्यचः" पद विस्तृत अन्तरिक्ष का उपलक्षक है। "अन्तरिक्षं व्यचोहितम्” (अथर्व० १०।२।२५)।]

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    विषय

    विराट के ४ रूप ऊर्ग, स्वधा, सूनृता, इरावती, उसका ४ स्तनों वाली गौ का स्वरूप।

    भावार्थ

    (यः एवं वेद) जो इस प्रकार विराट् के गूढ़ रहस्य को जानता है (अस्मै) उसके लिये (रथन्तरं ओषधीः एव दुहे) ‘रथन्तर’ नाम स्तन ओषधियों को ही प्रदान और पूर्ण करता है, (बृहत् व्यचः) ‘बृहत्’ नाम स्तन ‘व्यचस्’ को प्रदान और पूर्ण करता है, (वासदेव्यं अपः) वामदेव्य स्तन अपः=जलों को प्रदान और पूर्ण करता है। और यज्ञायज्ञिय नाम का स्तन यज्ञ को प्रदान करता और पूर्ण करता है। संक्षेप से देवों और मनुष्यों के उपजीवक विराड् के अन्तरिक्ष में चार रूप हैं। ऊर्ज, स्वधा, सूनृता, इरावती। उनका वत्स इन्द्र, रस्सी गायत्री, स्तनमण्डल मेघ हैं। उस विराड रूप गौ के ४ स्तन हैं बृहत्, रथन्तर यज्ञायज्ञिय और वामदेव्य, उनसे चार प्रकार का दूध प्राप्त किया ओषधि, व्यचस्, अपः और यज्ञ। विराड् शक्ति के या द्यौ=आदित्य के अन्तरिक्ष में चार ऊर्ज=अन्न, स्वधा=प्राण और अन्न, सूनृता=उत्तम वाणि, वाक् विद्युद् गर्जना, इरावती=जलों या अन्नों से पूर्ण पृथिवी। वत्स इन्द्र=वायु या स्वतः जीव है। गायत्री=पृथिवी है अपने साथ उसे बांधे है। मेघ उसके स्तन मण्डल है। मेघों के ४ स्तन हैं १. बृहत् द्यौः, उससे व्यचः=अन्न उत्पन्न है। जैसा कालिदास ने लिखा है “दुदोह गां स यज्ञाय सस्याय मघवा दिवम्’ (रघु०)। २. दूसरा स्तन रथन्तर है। रसतमं ह वै रथन्तरम् इत्याचक्षते परोक्षम्। श० ९। १। २।३॥ इयं वै पृथिवी रथन्तरम्। ऐ० ८। १॥ रथन्तर यह पृथिवी है। इससे नाना ओषधियां उत्पन्न हुई। (३) तीसरा स्तन ‘यज्ञायतिय’ है। पशवोऽन्नाद्यं यज्ञायज्ञीयं। तां० १५ । ९। १२। पशु और अन्नादि खानेवाले जन्तु ‘यज्ञायज्ञिय’ हैं। उनसे ‘यज्ञ’ उत्पन्न हुआ। (४) वामदेव्य चौथा स्तन अन्तरिक्ष है। अन्तरिक्षं वै वाम देव्यम्। ता० १५। १२। ५॥ उससे जलों की वर्षा हुई।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वाचार्य ऋषिः। विराड् देवता। १ त्रिपदा अनुष्टुप्। २ उष्णिग् गर्भा चतुष्पदा उपरिष्टाद् विराड् बृहती। ३ एकपदा याजुषी गायत्री। ४ एकपदा साम्नी पंक्तिः। ५ विराड् गायत्री। ६ आर्ची अनुष्टुप्। ८ आसुरी गायत्री। ९ साम्नो अनुष्टुप्। १० साम्नी बृहती। ७ साम्नी पंक्तिः। दशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Virat

    Meaning

    For one that knows this science, Vamadevya brings the waters of life, and Yajnayajniya brings the gifts of yajna in abundance.

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    Translation

    Vamadevya (yields) the waters, and yajnayajniya the sacrifice, to him, who knows it thus.

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    Translation

    For him who knows this Vamdevyam pours out waters and yajnayajniya pours out yajna.

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    Translation

    For him, who knows the secret of the glory of God, the five elements grant progeny, and Vedic knowledge inculcates the right course of conduct.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ९, १०−(अस्मै) ब्रह्मज्ञानिने (दुहे) द्विकर्मकः। दुग्धे। प्रपूरयति (व्यचः) विस्तृतम्। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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