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अथर्ववेद के काण्ड - 8 के सूक्त 10 के मन्त्र
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अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 10/ मन्त्र 7
ऋषिः - अथर्वाचार्यः
देवता - विराट्
छन्दः - आसुरी गायत्री
सूक्तम् - विराट् सूक्त
58
तामन्त॑को मार्त्य॒वोऽधो॒क्तां स्व॒धामे॒वाधो॑क्।
स्वर सहित पद पाठताम् । अन्त॑क: । मा॒र्त्य॒व: । अ॒धो॒क् । ताम् । स्व॒धाम् । ए॒व । अ॒धो॒क् ॥१३.७॥
स्वर रहित मन्त्र
तामन्तको मार्त्यवोऽधोक्तां स्वधामेवाधोक्।
स्वर रहित पद पाठताम् । अन्तक: । मार्त्यव: । अधोक् । ताम् । स्वधाम् । एव । अधोक् ॥१३.७॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
ब्रह्मविद्या का उपदेश।
पदार्थ
(ताम्) उस [विराट्] को (अन्तकः) मनोहर करनेवाले (मार्त्यवः) मृत्यु के स्वभाव जाननेवाले [जीव] ने (अधोक्) दुहा है, (ताम्) उससे (स्वधाम्) आत्मधारण शक्ति को (एव) भी (अधोक्) दुहा है ॥७॥
भावार्थ
मृत्यु के तत्त्ववेत्ता पुरुष ईश्वरमहिमा से अमृत [पुरुषार्थ] प्राप्त करके अमर होते हैं ॥७॥
टिप्पणी
७−(अन्तकः) अ० ८।१।१। मनोहरकरो जीवः (मार्त्यवः) तदधीते तद्वेद। पा० ४।२।५९। मृत्युस्वभाववेत्ता (ताम्) तस्याः सकाशात् इत्यर्थः (स्वधाम्) आत्मधारणशक्तिम् (अधोक्) द्विकर्मकः। दुग्धवान्। अन्यत् पूर्ववत् ॥
विषय
पितरों द्वारा स्वधा-दोहन
पदार्थ
१. (सा उदक्रामत्) = वह विराट् उत्क्रान्त हुई। (सा) = वह (पितृन्) = रक्षणात्मक कार्यों में प्रवृत्त लोगों को प्राप्त हुई। (पितरः तां उपाह्वयन्त) = पितरों ने उसे पुकारा कि (स्वधे एहि इति) = हे आत्मधारणशक्ते! आओ तो। शासन-व्यवस्था के ठीक होने पर ही रक्षणात्मक कार्य ठीक से सम्पन्न हो सकते हैं। ये रक्षणात्मक कार्यों में संलग्न व्यक्ति आत्मधारणशक्तिवाले होते हैं। इन कार्यों को करते हुए वे यही समझते हैं कि इन कार्यों द्वारा वे औरों का नहीं अपितु अपना ही धारण कर रहे हैं। (तस्या:) = उस विराट् का (वत्स:) = प्रिय यह रक्षणात्मक कार्य में प्रवृत्त व्यक्ति (यमः) = अपनी इन्द्रियों का नियमन करनेवाला व राजा-दीप्त जीवनवाला (आसीत्) = होता है। ऐसा बनकर ही तो यह रक्षणात्मक कार्यों को कर पाता है। उसका (पात्रम्) = यह रक्षणीय शरीर (रजतपात्रम्) = प्रजा का रञ्जन करनेवाला शरीर होता है। वह शरीर को स्वस्थ रखते हुआ प्रजा के रञ्जन में प्रवृत्त होता है। २. (ताम्) = उस विराट को (मार्त्यवः) = [तदधीते तद् वेद] मृत्यु को समझनेवाले-मृत्यु को न भूलनेवाले और इसप्रकार (अन्तक:) = वासनाओं का अन्त करनेवाले इस पुरुष ने (अधोक्) = दोहन किया। (ताम्) = उस विराट् से इसने (स्वधाम् एव अधोक्) = आत्मधारण शक्ति का ही दोहन किया। (पितर:) = ये रक्षण करनेवाले लोग (तां स्वधा उपजीवन्ति) = उस आत्मधारणशक्ति के द्वारा अपनी जीवन-यात्रा को सुन्दरता से पूर्ण करते हैं और (यः एवं वेद) = जो इसप्रकार स्व-धा के महत्व को समझ लेता है वह (उपजीवनीयः भवति) = औरों की जीवन यात्रा की पूर्ति में सहायक होता है।
भावार्थ
रक्षणात्मक कार्यों में प्रवृत्त लोग, इस विशिष्ट दीसिवाली शासन-व्यवस्था से युक्त देश में, आत्मधारणशक्ति का उपार्जन करते हैं। ये संयमी व दीप्त होते हैं, अपने शरीर को प्रजा रजन के कार्यों में आहुत करते हैं। ये मृत्यु को न भूलकर वासनाओं का अन्त करते हैं और आत्मधारण-शक्तिवाले होते हैं। स्वयं सुन्दर जीवन बिताते हुए औरों की सुन्दर जीवन-यात्रा में भी सहायक होते हैं।
भाषार्थ
(ताम्) उस विराट्-गौ को (अन्तकः) पराधीनता के अन्तकारी, (मार्त्यवः) मृत्यु के पुत्र मर्त्य-सेनापति ने (अधोक्) दोहा (ताम्) उस विराट-गौ से उस ने (स्वधाम्) स्वधा को (एव) ही (अधोक्) दोहा। अन्तकः = अन्तम् [पराधीनतायाः] करोतीति। स्वधा= अपने आप को स्वयं धारण-पोषण करने की शक्ति स्वतन्त्रता, अपराधीनता।
टिप्पणी
[अभिप्राय यह कि सेनापति अन्तक भी है, और मृत्यु का पुत्र भी, चूंकि सैन्य विभाग है "मरने और मारने के लिये"। अतः यह समग्र विभाग मृत्यु का पुत्र है, और सेनापति भी। अतः सेनापति को मार्तव्य कहा है। परन्तु सैन्य विभाग है "स्वधा" की रक्षा के लिये। स्वधा ही विराट्-गौ का दुग्ध है]।
विषय
विराट् गौ से माया, स्वधा, कृषि, सस्य, ब्रह्म और तपका दोहन।
भावार्थ
(सा) वह विराट् (उद् अक्रामत्) ऊपर उठी (सा पितॄन् आगच्छत्) वह पितृ लोगों के पास आई। (तां पितर उपाह्वयन्त स्वधे एहि इति) ‘पितृ’ लोगों ने उसे ‘स्वधे आओ’ इस प्रकार आदरपूर्वक अपने समीप बुलाया। (तस्याः यमः राजा वत्सः आसीत्) उस का राष्ट्रनियामक राजा ही ‘वत्स’ था और (रजतपात्रं पान्नम्) रजत, चांदी और सोना के पदार्थ ही पात्र था। (ताम्) उस विराट् रूप गौ को (मार्त्यवः अन्तकः) मृत्यु के अधिष्ठाता अन्तक ने (अधोक्) दुहा। (तां स्वधां एव अधोक्) उस से ‘स्वधा’ को ही प्राप्त किया। (तां स्वधां पितर उप जीवन्ति) उस स्वधा पर पितृगण अपनी आजीविका करते हैं। (य एवं वेद उपजीवनीयो भवति) जो इस प्रकार जानता है वह प्रजाओं की जीविका का आधार हो जाता है। ‘यमः—राजा’=राष्ट्र नियामक राजा। पितरः=पालक, राष्ट्र के रक्षक वृद्धजन। ‘स्वधा’ अपने शरीर पोषणयोग्य वेतन, या कर। रजतपात्र=सोने आदि के सिक्के। ‘मार्त्यवः अन्तकः’। अर्थात् मृत्युदण्डकारी अन्तिम शासक राजा। ‘यमो वैवस्वतो राजेत्याह। तस्य पितरो विशः। त इम आसते। इति स्थविराः उपसमेता भवन्ति। तान् उपदिशति यजूंषि वेद इति’। श० १३। ४। ३॥ ६॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वाचार्य ऋषिः। विराड् देवता। १, ५ साम्नां जगत्यौ। २,६,१० साम्नां बृहत्यौ। ३, ४, ८ आर्च्यनुष्टुभः। ९, १३ चतुष्पाद् उष्णिहौ। ७ आसुरी गायत्री। ११ प्राजापत्यानुष्टुप्। १२, १६ आर्ची त्रिष्टुभौ। १४, १५ विराङ्गायत्र्यौ। षोडशर्चं पर्यायसूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Virat
Meaning
The man that knows the beginning and the end, life and death, milked her in the silver vessel and received self-power, freedom and independent self¬ sustenance.
Translation
Antaka (the ender), son of Mrtyu (death) milked her; milked only the sustanance from her.
Translation
The exterminating death milked this and really milked the Svadha.
Translation
The fascinating soul, conscious of the nature of Death has realized that glory. It has realized the soul-preserving strength.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
७−(अन्तकः) अ० ८।१।१। मनोहरकरो जीवः (मार्त्यवः) तदधीते तद्वेद। पा० ४।२।५९। मृत्युस्वभाववेत्ता (ताम्) तस्याः सकाशात् इत्यर्थः (स्वधाम्) आत्मधारणशक्तिम् (अधोक्) द्विकर्मकः। दुग्धवान्। अन्यत् पूर्ववत् ॥
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