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अथर्ववेद के काण्ड - 8 के सूक्त 10 के मन्त्र
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अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 10/ मन्त्र 9
ऋषिः - अथर्वाचार्यः
देवता - विराट्
छन्दः - चतुष्पदोष्णिक्
सूक्तम् - विराट् सूक्त
67
सोद॑क्राम॒त्सेत॑रज॒नानाग॑च्छ॒त्तामि॑तरज॒ना उपा॑ह्वयन्त॒ तिरो॑ध॒ एहीति॑।
स्वर सहित पद पाठसा । उत् । अ॒क्रा॒म॒त् । सा । इ॒त॒र॒ऽज॒नान् । आ । अ॒ग॒च्छ॒त् । ताम् । इ॒त॒र॒ऽज॒ना: । उप॑ । अ॒ह्व॒य॒न्त॒ । तिर॑:ऽधे । आ । इ॒हि॒ । इति॑ ॥१४.९॥
स्वर रहित मन्त्र
सोदक्रामत्सेतरजनानागच्छत्तामितरजना उपाह्वयन्त तिरोध एहीति।
स्वर रहित पद पाठसा । उत् । अक्रामत् । सा । इतरऽजनान् । आ । अगच्छत् । ताम् । इतरऽजना: । उप । अह्वयन्त । तिर:ऽधे । आ । इहि । इति ॥१४.९॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
ब्रह्मविद्या का उपदेश।
पदार्थ
(सा उत् अक्रामत्) वह [विराट्] ऊपर चढ़ी, (सा) वह (इतरजनान्) दूसरे [पामर] जनों में (आ अगच्छत्) आयी, (ताम्) उसको (इतरजनाः) दूसरे जनों ने (उप अह्वयन्त) पास बुलाया, “(तिरोधे) हे अन्तर्धान [गुप्त रूप] शक्ति ! (आ इहि) तू आ, (इति) बस” ॥९॥
भावार्थ
संसार में देखते हुए भी अज्ञानी पुरुष ईश्वरशक्ति को विशेष रूप से नहीं जानते ॥९॥
टिप्पणी
९−(इतरजनान्) अन्यलोकान्। पामरान्। अज्ञानिनः (तिरोधे) तिरस्+दधातेः-अङ्, टाप्। हे अन्तर्धे। गुप्तरूपशक्ते। अन्यत् पूर्ववत् ॥
विषय
इतरजनों द्वारा तिरोधा का दोहन
पदार्थ
१.(सा उदक्रामत्) = वह विराट् उत्क्रान्त हुई। (सा इतरजनान् आगच्छत्) = [इ-तर] वह काम [बासना] को तैर जानेवाले लोगों को प्राप्त हुई। (ताम्) = उसे (इतरजना: उपाह्वयन्त) = वासना को तैरनेवाले लोग पुकारते थे कि (विषवति एहि इति) = [तिरोधा-over power, conquer, defeat] हे शत्रुपराजयशक्ते! आओ तो। (तस्याः) = उस विराट् का (वत्सः) = निय-यह वासना को पराजित करनेवाला व्यक्ति (कुबेर:) = [कुबि आच्छादने] शरीर में शक्ति को आच्छादित करनेवाला (वैश्रवण: आसीत्) = विशिष्ट श्रवण-[ज्ञान]-वाला था। (पात्रम्) = उसका यह रक्षणीय शरीर (आमपात्रम्) = सब उत्तम गतियों [अम गतौ] का आधार था। २. (ताम्) = उस विराट् को, (रजतनाभि:) = रञ्जन की साधनभूत शक्ति को अपने अन्दर बाँधनेवाला (काबेरक:) = शक्ति को अपने अन्दर ही आच्छादित करनेवाला, यह (इतरजन) = कामजयी व्यक्ति (अधोक्) = दुहता था। (तां तिरोधाम् एव अधोक्) = उसने उस शक्ति के आच्छादन का-शत्रु पराजय का ही दोहन किया। (इतरजना:) = ये वासना को तैर जानेवाले लोग (तां तिरोधाम् उपजीवन्ति) = उस शक्ति के आच्छादान की वृत्ति को-शत्रु-पराजय की वृत्ति को ही जीवनाधार बनाते हैं। (यः एवं वेद) = जो इसप्रकार शक्ति के अन्तरधान के महत्त्व को व कामरूप शत्रु को पराजित करने के महत्त्व को समझ लेता है, वह (सर्वं पाप्मानं तिरोधत्ते) = वह सारे पाप को पराजित कर डालता है तथा (उपजीवनीयः भवति) = औरों के जीवन में भी सहायक होता है।
भावार्थ
विशिष्ट शासन-व्यवस्था होने पर कामवासना को पराजित करनेवाला व्यक्ति अपने अन्दर शक्ति को आच्छादित करता है और विशिष्ट ज्ञानवाला बनता है। यह पाप को पराजित करता हुआ अपने जीवन को सुन्दर बनाता है और औरों के लिए सहायक होता है।
भाषार्थ
(सा) वह विराट्-व्यवस्था (उदक्रामत्) उत्क्रान्त हुई (सा) वह (इतरजनान्) गन्धर्वाप्सराओं से भिन्न जनों को (आगच्छत्) प्राप्त हुई, (ताम्) उस को (इतरजनाः) इतरजनों ने (उप) अपने समीप (अह्वयन्त) बुलाया कि (तिरोधे) हे अन्तर्धानरूपिणी ! या कुटिलता का धारण-पोषण करने वाली ! (एहि) आ, (इति) इस प्रकार।
टिप्पणी
[इस विराट-व्यवस्था को "इतरजन व्यवस्था" कहा है। इतरजन का अर्थ है भिन्न प्रकार के जन। इस से पूर्व गन्धर्वो और अप्सराओं का आधिभौतिक वर्णन हुआ है। इतरजन उन से भिन्न प्रकार के हैं। जैसी राज्यव्यवस्था गन्धर्वो और अप्सराओं की है, उस से भिन्न प्रकार की राज्यव्यवस्था इतरजनों की है। पूर्वकथित राज्य-व्यवस्था तो पुण्यकर्मों की है, परन्तु इतरजनों की राज्यव्यवस्था पापकर्मों की है (मन्त्र १२)। तिरोधे ! = इतरजनों की विराट-व्यवस्था 'तिरोधा' रूप है। 'तिरोधा' का अर्थ है तिरोधान अर्थात् गुप्तरूप से कार्य करना। पापकर्म गुप्तरूप में ही किये जाते हैं (मन्त्र (१२), तथा तिरोधा का अर्थ यह भी है कि कुटिलता का धारण-पोषण करने वाली व्यवस्था। यह भी पापमयी व्यवस्था है, जिसे कि "इतरजन" अपनाते हैं। तिरः (कुटिलता, टेढ़ापन+धा (धारणपोषण)]।
विषय
विराड् रूप गौ से ऊर्जा, पुण्य गन्ध, तिरोधा और विष का दोहन।
भावार्थ
(सा उत् अक्रामत्) वह विराट् ऊपर उठी। (सा इतर जनान्) वह ‘इतर जनों’ के पास आई। (ताम् इतरजनाः तिरोधे एहि इति उपाह्वयन्त) उसको इतरजनों ने ‘हे तिरोधे आओ’ इस प्रकार सादर बुलाया। (तस्याः कुबेरः वैश्रवणः वत्सः आसीत्) उसका कुबेर वैश्रवण वत्स था। (आमपात्रं पात्रम्) आमपात्र पात्र था। (तां रजतनाभिः कौबेरकः अधोक्) उसको ‘कौबेरक रजतनाभि’ दुहा (तां तिरोधाम् एव अधोक्) उससे ‘तिरोधा’=छिपाने की कला को ही प्राप्त किया। (तां तिरोधां इतरजनाः उपजीवन्ति) उस ‘तिरोधा’ से इतरजन जीवन धारण करते हैं। (यः एवं वेद तिरोधत्ते सर्वम् पाप्मानम्) जो इस प्रकार के रहस्य को जान लेता है वह सब पापों को दूर कर देता है। (उपजीवनीयो भवति) और जनों को जीवन धारण कराने में समर्थ होता है। “कुबेरो वैश्रवणो राजा इत्याह। तस्य रक्षांसि विशः। तानि इमान्यासते। इति सेलगाः पापकृतः उपसमेता भवन्ति। तान् उपदिशति. देवजनविद्या वेदः।” श० १३। ४। ३। १०॥ आर्यजनों से जो इतर अनार्य अर्थात् पापरूप लोग हैं वे इतरजन हैं। जो चोरी डकैती आदि का जीवन बिताते हैं वे स्वर्णरजत से ही बंधे रहते हैं। उस पर ही उनका मन रहता है। वे हरेक वस्तु को छिपा लेने की विद्या में निपुण होते हैं। उनका राजा ‘कुबेर’ है जो पृथ्वी में गड़े खजानों का मालिक समझा जाता है। जो इस रहस्य विद्या को जानता है वह सब पाप कार्यों को छिपा देता है। और लोग उसके बल पर भी वृत्ति करते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वाचार्य ऋषिः। विराट् देवता। १, १३ चतुष्पादे साम्नां जगत्यौ। १०,१४ साम्नां वृहत्यौ। १ साम्नी उष्णिक्। ४, १६ आर्च्याऽनुष्टुभौ। ९ उष्णिक्। ८ आर्ची त्रिष्टुप्। २ साम्नी उष्णिक्। ७, ११ विराड्गायत्र्यौ। ५ चतुष्पदा प्राजापत्या जगती। ६ साम्नां बृहती त्रिष्टुप्। १५ साम्नी अनुष्टुप्। षोडशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Virat
Meaning
She, Virat, arose and proceeded to other people, unknown, obscure, unclassed, and some even exceptional. These others addressed her: Come, power and presence obscure and unknown, and bless us.
Translation
She moved up. She came to other folks. The other folks called to her : "O you, concealing one (tirodha), come here,"
Translation
This Virat mounted up and this approached the other people (the people deprived of enlightenment and unrighteousness). They cried, Come clandestineness! Come hither.
Translation
The glory of God arose. She approached the ignorant. They called her, crying, Come, Mysterious Power, come hither!
Footnote
God is the benefactor of the ignorant, and instructs them to rise mentally intellectually and spiritually.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
९−(इतरजनान्) अन्यलोकान्। पामरान्। अज्ञानिनः (तिरोधे) तिरस्+दधातेः-अङ्, टाप्। हे अन्तर्धे। गुप्तरूपशक्ते। अन्यत् पूर्ववत् ॥
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