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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 10/ मन्त्र 11
    ऋषिः - अथर्वाचार्यः देवता - विराट् छन्दः - विराड्गायत्री सूक्तम् - विराट् सूक्त
    55

    तां र॑ज॒तना॑भिः काबेर॒कोधो॒क्तां ति॑रो॒धामे॒वाधो॑क्।

    स्वर सहित पद पाठ

    ताम् । र॒ज॒तऽना॑भि: । का॒बे॒र॒क: । अ॒धो॒क् । ताम् । ति॒र॒:ऽधाम् । ए॒व । अ॒धो॒क् ॥१४.११॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तां रजतनाभिः काबेरकोधोक्तां तिरोधामेवाधोक्।

    स्वर रहित पद पाठ

    ताम् । रजतऽनाभि: । काबेरक: । अधोक् । ताम् । तिर:ऽधाम् । एव । अधोक् ॥१४.११॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 10; पर्यायः » 5; मन्त्र » 11
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ब्रह्मविद्या का उपदेश।

    पदार्थ

    (ताम्) उस [विराट्] को (काबेरकः) प्रशंसनीय गुणों के निवास (रजतनाभिः) ज्ञान के प्रबन्धक [वा क्षत्रिय] ने (अधोक्) दुहा है, (ताम्) उस (तिरोधाम्) अन्तर्धान शक्ति को (एव) ही (अधोक्) दुहा है ॥११॥

    भावार्थ

    ज्ञानी शूर पुरुष ईश्वरशक्ति से उपकार लेते हैं ॥११॥

    टिप्पणी

    ११−(ताम्) विराजम् (रजतनाभिः) पृषिरञ्जिभ्यां कित्। उ० ३।१११। रजति गतिकर्मा-निघ–० २।१४। अतच्। नहो भश्च। उ० ४।१२६। णह बन्धने-इञ्, हस्य भः। नाभिः सन्नहनान्नाभ्या सन्नद्धा गर्भा जायन्त इत्याहुरेतस्मादेव ज्ञातीन् सनाभय इत्याचक्षते सबन्धव इति च-निरु० ४।२१। गतेर्ज्ञानस्य प्रबन्धकः क्षत्रियो वा (काबेरकः) पतिकठिकुठि०। उ० १।५८ कबृ स्तुतौ वर्णे च-एरक्, यद्वा कवते गतिकर्मा-निघ० २।४। एरक्। वुञ्छण्कठ०। पा० ४।२।८०। कवेर-वुञ्। तस्य निवासः। पा० ४।२।६८। इत्यर्थे। कवेराणां स्तुत्यगुणानां निवासः (तिरोधाम्) म० ९। अन्तर्धानशक्तिम्। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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    विषय

    इतरजनों द्वारा तिरोधा का दोहन

    पदार्थ

    १.(सा उदक्रामत्) = वह विराट् उत्क्रान्त हुई। (सा इतरजनान् आगच्छत्) = [इ-तर] वह काम [बासना] को तैर जानेवाले लोगों को प्राप्त हुई। (ताम्) = उसे (इतरजना: उपाह्वयन्त) = वासना को तैरनेवाले लोग पुकारते थे कि (विषवति एहि इति) = [तिरोधा-over power, conquer, defeat] हे शत्रुपराजयशक्ते! आओ तो। (तस्याः) = उस विराट् का (वत्सः) = निय-यह वासना को पराजित करनेवाला व्यक्ति (कुबेर:) = [कुबि आच्छादने] शरीर में शक्ति को आच्छादित करनेवाला (वैश्रवण: आसीत्) = विशिष्ट श्रवण-[ज्ञान]-वाला था। (पात्रम्) = उसका यह रक्षणीय शरीर (आमपात्रम्) = सब उत्तम गतियों [अम गतौ] का आधार था। २. (ताम्) = उस विराट् को, (रजतनाभि:) = रञ्जन की साधनभूत शक्ति को अपने अन्दर बाँधनेवाला (काबेरक:) = शक्ति को अपने अन्दर ही आच्छादित करनेवाला, यह (इतरजन) = कामजयी व्यक्ति (अधोक्) = दुहता था। (तां तिरोधाम् एव अधोक्) = उसने उस शक्ति के आच्छादन का-शत्रु पराजय का ही दोहन किया। (इतरजना:) = ये वासना को तैर जानेवाले लोग (तां तिरोधाम् उपजीवन्ति) = उस शक्ति के आच्छादान की वृत्ति को-शत्रु-पराजय की वृत्ति को ही जीवनाधार बनाते हैं। (यः एवं वेद) = जो इसप्रकार शक्ति के अन्तरधान के महत्त्व को व कामरूप शत्रु को पराजित करने के महत्त्व को समझ लेता है, वह (सर्वं पाप्मानं तिरोधत्ते) = वह सारे पाप को पराजित कर डालता है तथा (उपजीवनीयः भवति) = औरों के जीवन में भी सहायक होता है।

    भावार्थ

    विशिष्ट शासन-व्यवस्था होने पर कामवासना को पराजित करनेवाला व्यक्ति अपने अन्दर शक्ति को आच्छादित करता है और विशिष्ट ज्ञानवाला बनता है। यह पाप को पराजित करता हुआ अपने जीवन को सुन्दर बनाता है और औरों के लिए सहायक होता है।

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    भाषार्थ

    (ताम्) उस [इतरजन व्यवस्थारूपी] विराट-गौ को, (रजतनाभिः) मानो नाभिनाल१ द्वारा प्राप्त रजतादि सम्पत्ति वाले (काबेरकः= कावेरकः१) और कुत्सित वीरता वाले कुबेर ने (अधोक्) दोहा (ताम्) उस विराट् से (तिरोधाम्) तिरोधान अर्थात् गुप्तरूप से कार्य करना तथा कुटिलता को (एव) ही (अधोक्) उस ने दोहा।

    टिप्पणी

    [काबेरकः= का+वीर् (शूरवीर विक्रान्तौ; चुरादिः) +अच्+कः। कुत्सितवीर या कावीरः यथा “कापुरुष"। रजतनाभिः= माता से जन्मलाभ करते ही जो प्रभूत रजत आदि का स्वामी बन गया है वह। "इतरजन" राज्य में कुबेर था बछड़ा, और रजतनाभि कुत्सितवीर था दोग्धा। इसे कुत्सितवीर इस लिये कहा है कि इसकी वीरता, तिरोधान को तथा कुटिल कर्मों को ही दोहरूप में प्राप्त करती है।] [१. "कावेरक:" K2, तथा BP2 पाण्डुलिपियों के पाठ। कावेरकः, यथा "कापुरूषः"। तथा "रजतनाभिः" द्वारा यह सूचित किया है कि नाभिनाल द्वारा निजमाता के साथ सम्बन्ध होने से, पुत्र के नाते, पुत्र निज माता की रजतादि सम्पत्ति का उत्तराधिकारी हो जाता है।]

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    विषय

    विराड् रूप गौ से ऊर्जा, पुण्य गन्ध, तिरोधा और विष का दोहन।

    भावार्थ

    (सा उत् अक्रामत्) वह विराट् ऊपर उठी। (सा इतर जनान्) वह ‘इतर जनों’ के पास आई। (ताम् इतरजनाः तिरोधे एहि इति उपाह्वयन्त) उसको इतरजनों ने ‘हे तिरोधे आओ’ इस प्रकार सादर बुलाया। (तस्याः कुबेरः वैश्रवणः वत्सः आसीत्) उसका कुबेर वैश्रवण वत्स था। (आमपात्रं पात्रम्) आमपात्र पात्र था। (तां रजतनाभिः कौबेरकः अधोक्) उसको ‘कौबेरक रजतनाभि’ दुहा (तां तिरोधाम् एव अधोक्) उससे ‘तिरोधा’=छिपाने की कला को ही प्राप्त किया। (तां तिरोधां इतरजनाः उपजीवन्ति) उस ‘तिरोधा’ से इतरजन जीवन धारण करते हैं। (यः एवं वेद तिरोधत्ते सर्वम् पाप्मानम्) जो इस प्रकार के रहस्य को जान लेता है वह सब पापों को दूर कर देता है। (उपजीवनीयो भवति) और जनों को जीवन धारण कराने में समर्थ होता है। “कुबेरो वैश्रवणो राजा इत्याह। तस्य रक्षांसि विशः। तानि इमान्यासते। इति सेलगाः पापकृतः उपसमेता भवन्ति। तान् उपदिशति. देवजनविद्या वेदः।” श० १३। ४। ३। १०॥ आर्यजनों से जो इतर अनार्य अर्थात् पापरूप लोग हैं वे इतरजन हैं। जो चोरी डकैती आदि का जीवन बिताते हैं वे स्वर्णरजत से ही बंधे रहते हैं। उस पर ही उनका मन रहता है। वे हरेक वस्तु को छिपा लेने की विद्या में निपुण होते हैं। उनका राजा ‘कुबेर’ है जो पृथ्वी में गड़े खजानों का मालिक समझा जाता है। जो इस रहस्य विद्या को जानता है वह सब पाप कार्यों को छिपा देता है। और लोग उसके बल पर भी वृत्ति करते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वाचार्य ऋषिः। विराट् देवता। १, १३ चतुष्पादे साम्नां जगत्यौ। १०,१४ साम्नां वृहत्यौ। १ साम्नी उष्णिक्। ४, १६ आर्च्याऽनुष्टुभौ। ९ उष्णिक्। ८ आर्ची त्रिष्टुप्। २ साम्नी उष्णिक्। ७, ११ विराड्गायत्र्यौ। ५ चतुष्पदा प्राजापत्या जगती। ६ साम्नां बृहती त्रिष्टुप्। १५ साम्नी अनुष्टुप्। षोडशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Virat

    Meaning

    Her, Kaberaka, keen seeker of knowledge and organiser of knowledge in systemic form, milked as the mother cow, thus he explored the hidden and unknown.

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    Translation

    Rajatanabhi (silver-navelled), son of Kubera, milked only thé concealment (tirodham) from her.

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    Translation

    The darkness which presents silvery phenomenon milked the clandes-tiveness.

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    Translation

    A highly qualified intellectual Kshatriya has realized her. He has verily realized the mysterious Power.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ११−(ताम्) विराजम् (रजतनाभिः) पृषिरञ्जिभ्यां कित्। उ० ३।१११। रजति गतिकर्मा-निघ–० २।१४। अतच्। नहो भश्च। उ० ४।१२६। णह बन्धने-इञ्, हस्य भः। नाभिः सन्नहनान्नाभ्या सन्नद्धा गर्भा जायन्त इत्याहुरेतस्मादेव ज्ञातीन् सनाभय इत्याचक्षते सबन्धव इति च-निरु० ४।२१। गतेर्ज्ञानस्य प्रबन्धकः क्षत्रियो वा (काबेरकः) पतिकठिकुठि०। उ० १।५८ कबृ स्तुतौ वर्णे च-एरक्, यद्वा कवते गतिकर्मा-निघ० २।४। एरक्। वुञ्छण्कठ०। पा० ४।२।८०। कवेर-वुञ्। तस्य निवासः। पा० ४।२।६८। इत्यर्थे। कवेराणां स्तुत्यगुणानां निवासः (तिरोधाम्) म० ९। अन्तर्धानशक्तिम्। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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