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अथर्ववेद के काण्ड - 8 के सूक्त 10 के मन्त्र
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अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 10/ मन्त्र 14
ऋषिः - अथर्वाचार्यः
देवता - विराट्
छन्दः - साम्नी बृहती
सूक्तम् - विराट् सूक्त
24
तस्या॑स्तक्ष॒को वै॑शाले॒यो व॒त्स आसी॑दलाबुपा॒त्रं पात्र॑म्।
स्वर सहित पद पाठतस्या॑: । त॒क्ष॒क: । वै॒शा॒ले॒य: । व॒त्स: । आसी॑त् । अ॒ला॒बु॒ऽपा॒त्रम् । पात्र॑म् ॥१४.१४॥
स्वर रहित मन्त्र
तस्यास्तक्षको वैशालेयो वत्स आसीदलाबुपात्रं पात्रम्।
स्वर रहित पद पाठतस्या: । तक्षक: । वैशालेय: । वत्स: । आसीत् । अलाबुऽपात्रम् । पात्रम् ॥१४.१४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
ब्रह्मविद्या का उपदेश।
पदार्थ
(वैशालेयः) विशाला [प्रवेशशक्ति ब्रह्मविद्या] का जाननेवाला (तक्षकः) सूक्ष्मदर्शी [वा विश्वकर्मा पुरुष] (तस्याः) उस [विराट्] का (वत्सः) उपदेष्टा और (अलाबुपात्रम्) न डूबनेवाला रक्षक [ब्रह्म] (पात्रम्) रक्षासाधन (आसीत्) था ॥१४॥
भावार्थ
ब्रह्मज्ञानी सूक्ष्मदर्शी पुरुष ईश्वरशक्ति का प्रभाव जानते हैं ॥१४॥
टिप्पणी
१४−(तस्याः) विराजः (तक्षकः) क्वुन् शिल्पिसंज्ञयोरपूर्वस्यापि। उ० २।३३। तक्षू तनूकरणे-क्वुन्। तनूकर्ता। सूक्ष्मदर्शी विश्वकर्मा पुरुषः (वैशालेयः) तमिविशिविडि०। उ० १।११८। विश प्रवेशने-कालन्, टाप्। स्त्रीभ्यो ढक्। पा० ४।१।१२०। विशाला-ढक्। तदधीते तद्वेद। पा० ४।२।५९। इत्यर्थे। प्रवेशशक्तेर्विशालाया ब्रह्मविद्याया वेत्ता (अलाबुपात्रम्) कृवापा०। उ० १।१। न+लबि अवस्रंसने-उण्। नलोपः। नञि लम्बेर्नलोपश्च। उ० १।८७। अत्र तु ऊ प्रत्ययः स्त्रियाम्। अनधःपतनशीलरक्षकं ब्रह्म। अन्यत् पूर्ववत् ॥
विषय
सर्पों द्वारा विष-दोहन
पदार्थ
१. (सा उदक्रामत्) = वह विराट् उत्क्रान्त हुई। (सा सर्पान् आगच्छत्) = वह [सप गती] गतिशील व्यक्तियों को प्राप्त हुई। (ताम्) = उस विराट् को (सर्पाः उपाह्वयन्त) = इन गतिशील पुरुषों ने पुकारा कि (विषवति एहि इति) = [विषम्-जलम्] हे प्रशस्त जलवाली! आओ तो। उत्तम राष्ट्र व्यवस्था में पानी का समुचित प्रबन्ध होता है। (तस्याः) = उस विराट् का (वत्स:) = प्रिय वह क्रियाशील व्यक्ति (तक्षक:) = [तक्षक त्विषेर्वा] ज्ञान की दीप्सिवाला व (वैशालेय:) = उदार चित्तवृत्तिवाला [विशाला का पुत्र] (आसीत्) = था। इसका (पात्रम्) = यह रक्षणीय शरीर (अलाबुपात्रम्) = [लबि अवलंसने] न चूनेवाली शक्ति का पात्र होता है। इसके शरीर से शक्ति का अवलंसन नहीं होता। २. (ताम्) = उस विराट् को (धृतराष्ट्र:) = शरीररूप राष्ट्र का धारण करनेवाले (ऐरावतः) = [इरा-Water] प्रशस्त जलवाले-प्रशस्त जल से शरीर को नीरोग रखनेवाले ने (अधोक्) = दुहा। (तां विषम् एव अधोक्) = उसने प्रशस्त जल का ही दोहन किया। (सर्पा:) = ये क्रियाशील जीवनवाले व्यक्ति (तत् विषम् उपजीवन्ति) = उस जल के आधार से जीवन-यात्रा को सुन्दरता से निभाते हैं। (यः एवं वेद) = जो इसप्रकार जल के महत्व को समझता है, वह अपने तथा (उपजीवनीयः भवति) = औरों के लिए जीवन में सहायक होता है।
भावार्थ
उत्तम राष्ट्र-व्यवस्था होने पर क्रियाशील व्यक्ति प्रशस्त जल पाकर जीवन को स्वस्थ बना पाते हैं। ये शरीररूप राष्ट्र का उस प्रशस्त जल द्वारा धारण करते हुए औरों के लिए भी सहायक होते हैं।
भाषार्थ
(तस्याः) उस विराट-व्यवस्था का (वत्सः) बछड़ा (आसीत्) था (वैशालेयः) विशालकाय वाला (तक्षकः) तक्षक अर्थात् तक्षा के सदृश काटने वाला, सांपस्वभाव वाला, राजा। (अलाबुपात्रम्) और रक्षा-पालन का साधन तूम्बा था (पात्रम्) उस का रक्षक-पालक। पात्रम् =पा (रक्षणे)+ त्रैङ् (पालने)।
टिप्पणी
[तक्षकः= तक्षम् (तक्षणम्) करोतीति। “तक्षू तनूकरणे" (भ्वादिः), जो कि काष्ठों को काट कर, उन्हें सूक्ष्म कर, वस्तुनिर्माण करता है, अर्थात् तर्खान्, बढ़ई। तत्सदृश काटने वाला व्यक्ति भी है, तक्षक सर्प। अलाबु है तूम्बा, परन्तु कड़वा तूम्बा,अर्थात् कड़वे तूम्बे के सदृश कटुविष वाला सांप। ऐसे सांपों के सहारे सर्पप्रकृतिक लोग जीवनचर्या करते हैं, ऐसे सर्प ही उन के जीवनों के रक्षक और पालक होते हैं।]
इंग्लिश (4)
Subject
Virat
Meaning
Of her, the eminent specialist of subtle knowledge was the darling child, and bottle gourd the receiving bowl as well as the saviour.
Translation
Taksaka (cutter), son of višala (huge), was her calf; the ground-bottle (alabu-patra) was the milking-pot.
Translation
The wild serpent known as Takshaka was the calf of this virat and gourd-bottle was the pan. of milking.
Translation
An intuitive recognizer and knower of the knowledge of God is her preacher, and Unfailing God, her Guardian.
Footnote
Takshaka means the knower of the knowledge of God. Vaishalaya means a man of intuition, सूक्ष्मदर्शी See Pt. Khem Karan Das Ji’s commentary.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१४−(तस्याः) विराजः (तक्षकः) क्वुन् शिल्पिसंज्ञयोरपूर्वस्यापि। उ० २।३३। तक्षू तनूकरणे-क्वुन्। तनूकर्ता। सूक्ष्मदर्शी विश्वकर्मा पुरुषः (वैशालेयः) तमिविशिविडि०। उ० १।११८। विश प्रवेशने-कालन्, टाप्। स्त्रीभ्यो ढक्। पा० ४।१।१२०। विशाला-ढक्। तदधीते तद्वेद। पा० ४।२।५९। इत्यर्थे। प्रवेशशक्तेर्विशालाया ब्रह्मविद्याया वेत्ता (अलाबुपात्रम्) कृवापा०। उ० १।१। न+लबि अवस्रंसने-उण्। नलोपः। नञि लम्बेर्नलोपश्च। उ० १।८७। अत्र तु ऊ प्रत्ययः स्त्रियाम्। अनधःपतनशीलरक्षकं ब्रह्म। अन्यत् पूर्ववत् ॥
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