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अथर्ववेद के काण्ड - 8 के सूक्त 10 के मन्त्र
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अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 10/ मन्त्र 15
ऋषिः - अथर्वाचार्यः
देवता - विराट्
छन्दः - विराड्गायत्री
सूक्तम् - विराट् सूक्त
50
तां बृह॒स्पति॑राङ्गिर॒सोधो॒क्तां ब्रह्म॑ च॒ तप॑श्चाधोक्।
स्वर सहित पद पाठताम् । बृह॒स्पति॑: । आ॒ङ्गि॒र॒स: । अ॒धो॒क् । ताम् । ब्रह्म॑ । च॒ । तप॑: । च॒ । अ॒धो॒क् ॥१३.१५॥
स्वर रहित मन्त्र
तां बृहस्पतिराङ्गिरसोधोक्तां ब्रह्म च तपश्चाधोक्।
स्वर रहित पद पाठताम् । बृहस्पति: । आङ्गिरस: । अधोक् । ताम् । ब्रह्म । च । तप: । च । अधोक् ॥१३.१५॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
ब्रह्मविद्या का उपदेश।
पदार्थ
(आङ्गिरसः) महाज्ञानी परमेश्वर के जाननेवाले (बृहस्पतिः) बड़े-बड़े गुणों के रक्षक पुरुष ने (ताम्) उस [विराट्] को (अधोक्) दुहा है, (ताम्) उसी से (ब्रह्म) वेद (च च) और (तपः) तप [ब्रह्मचर्य आदि व्रत वा ऐश्वर्य] को (अधोक्) दुहा है ॥१५॥
भावार्थ
ब्रह्मज्ञानी पुरुष ईश्वरशक्ति से वेद और सामर्थ्य प्राप्त करते हैं ॥१५॥
टिप्पणी
१५−(बृहस्पतिः) अ० १।८।२। बृहतां गुणानां रक्षकः (आङ्गिरसः) अ० ५।१९।२। तदधीते तद्वेद। पा० ४।२।५९। अङ्गिरस्-अण्। आङ्गिरसः सर्वज्ञस्य परमेश्वरस्य वेत्ता (ब्रह्म) वेदम् (तपः) ब्रह्मचर्यादिव्रतम्। ऐश्वर्यम्। अन्यत् पूर्ववत् ॥
विषय
सप्तर्षियों द्वारा ब्रह्म व तप का दोहन
पदार्थ
१. (सा) = वह विराट् (उदक्रामत्) = उत्क्रान्त हुई। (सा) = वह (सम ऋषीन्) = सात ऋषियों को प्राप्त हुई। मनुष्य के जीवन में ('सप्त ऋषयः प्रतिहिताः शरीरे') = सप्त ऋषि 'दो कान, दो नासिका छिद्र, दो आँखें व मुख' प्रभु द्वारा स्थापित किये गये हैं। इन (सप्तऋषय:) = सात ऋषियों ने (ताम्) = उस विराट् को (उपाह्वयन्त) = पुकारा कि हे (ब्रह्मण्यति एहि इति) = ज्ञानवाली वेदवाणि! तू आ तो। (तस्या:) = उस विराट का (वत्स:) = प्रिय यह व्यक्ति (सोमः) = सौम्य स्वभाव का तथा राजा-व्यवस्थित जीवनवाला (आसीत्) = हुआ। (छन्द:) = वेदवाणी के छन्द ही उसके (पात्रम्) = रक्षासाधन बनें। २. (ताम्) = उस विराट् को (आङ्गिरस:) = अङ्ग-प्रत्यङ्ग में रसवाले (बृहस्पति:) = ज्ञानी पुरुष ने (अधोक्) = दुहा। (ताम्) = उससे (ब्रह्म च तपः च अधोक) = ज्ञान और तप का ही दोहन किया। (सप्तऋषय:) = ये शरीरस्थ सप्तर्षि (तत्) = उस (ब्रह्म च तप: च) = ब्रह्म और तप को ही (उपजीवन्ति) = जीवन का आधार बनाते हैं। (यः एवं वेद) = जो इसप्रकार ब्रह्म और तप के महत्व को समझ लेता है, वह ब्रह्मवर्चसी ब्रह्मवर्चस्वाला व (उपजीवनीयः भवति) = जीवन-यात्रा में औरों को सहायता देनेवाला होता है।
भावार्थ
राष्ट्र में शासन-व्यवस्था के ठीक होने पर शरीरस्थ सप्तर्षि वेदवाणी के द्वारा ज्ञान व तप का जीवन बनानेवाले होते हैं। यह ज्ञानी व तपस्वी व्यक्ति ब्रह्मवर्चस् प्राप्त करके औरों की जीवनयात्रा में सहायक होते हैं।
भाषार्थ
(ताम्) उस विराट् को (आङ्गिरसः) प्राणविद्या के जानने वाले (बृहस्पतिः) बृहती वेदवाणी के पति ने (अधोक्) दोहा (ताम्) उस विराट् से (ब्रह्म च, तपः च) ब्रह्म को और तप को (अधोक्) दोहा।
टिप्पणी
[अङ्गिराः= प्राण। प्राण है शरीराङ्गी और शरीर के अङ्गों का रस, "सोऽयास्य आङ्गिरसोऽङ्गानां हि रसः प्राणो वा अङ्गानां रसः, प्राणो हि वा अङ्गानां रस:" (बृहद् उप० अध्याय १। ब्रा० ३। खण्ड १९)। अतः प्राणविद्या का ज्ञाता है "आङ्गिरस"। बृहस्पतिः= "वाग् वै बृहतो, तस्याः एष पतिः, तस्मादु बृहस्पतिः" (बृहद्० उप, अध्याय १। ब्रा० ३। खण्ड २०)। आङ्गिरस-बृहस्पति सप्त ऋषियों का मुख्य है। इस ने विराट् से ब्रह्म और तप का दोहन किया। सप्त ऋषियों के मन्त्रित्व में राज्य में ब्रह्म और तप का प्रसार होता है– यह अभिप्राय है। मन्त्र (१४) में 'छन्दः' द्वारा वेदमन्त्रों का निर्देश हुआ है और मन्त्र (१५) में बृहस्पति द्वारा वेद-वाणी का निर्देश हुआ है]।
विषय
विराट् गौ से माया, स्वधा, कृषि, सस्य, ब्रह्म और तपका दोहन।
भावार्थ
(सा उद् अक्रामत्) वह उपर उठी। (सा सप्तऋषीन् आगच्छत्) वह सात ऋषियों के पास आई। (तां सप्त ऋषयः उपाह्वयन्त ब्रह्मण्वति एहि इति) उन सात ऋषियों ने हे ब्रह्मण्वति ! आओ इस प्रकार आदरपूर्वक बुलाया। (तस्याः सोमः राजा वत्सः आसीत्) उसका सोम राजा वत्स था। (छन्दः पानम्) छन्दस् पात्र था। (तां बृहस्पतिः आंगिरसः अधोक्) उसको आंगिरस बृहस्पति ने दोहन किया। (तां ब्रह्म च तपः च अधोक्) उसने ब्रह्मज्ञान, वेद और तपश्चर्या का दोहन किया। (तत्) उस (ब्रह्म च तपः च) ब्रह्मज्ञान और तप के आधार पर (सप्त ऋषयः उपजीवन्ति) सात ऋषिगण प्राण धारण करते हैं। (य एवं वेद) जो इस रहस्य को जानता है वह (ब्रह्मवर्चसी उपजीवनीयः भवति) ब्रह्मवर्चस्वी और अन्यों को जीविका देने में समर्थ होता है। विराट्=ब्रह्मण्वती अर्थात् ब्रह्मज्ञानमयी होकर ऋषियों को प्राप्त हुई उस का सोम राजा ज्ञानपिपासु वत्स के समान है। वेदवक्ता ब्रह्मणस्पति या बृहस्पति उसका दोहन करता है। ब्रह्मज्ञान, वेद और तप उसका दोहन का सार है। ऋषि उसी पर जीते हैं, दोहन का पात्र ‘छन्द’ वेद है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वाचार्य ऋषिः। विराड् देवता। १, ५ साम्नां जगत्यौ। २,६,१० साम्नां बृहत्यौ। ३, ४, ८ आर्च्यनुष्टुभः। ९, १३ चतुष्पाद् उष्णिहौ। ७ आसुरी गायत्री। ११ प्राजापत्यानुष्टुप्। १२, १६ आर्ची त्रिष्टुभौ। १४, १५ विराङ्गायत्र्यौ। षोडशर्चं पर्यायसूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Virat
Meaning
Her, Brhaspati, master of the infinite expansive Word, disciple of Angiras, sage of the very spirit and breath of life, milked, and received the knowledge, experience and vision of Brahma, the Supreme.
Translation
Brhaspati (the master of knowledge). son of Angiras (shining as burning coal), milked her, milked spiritual knowledge (brahma) and austerity (tapas) from her.
Translation
God, the master of Vedic Speech and who as universal soul is permeating all the parts of the universe, milked this and milked out knowledge and austerity.
Translation
The highly qualified knower of God realized her, and drew from her Vedic knowledge and holy fervor.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१५−(बृहस्पतिः) अ० १।८।२। बृहतां गुणानां रक्षकः (आङ्गिरसः) अ० ५।१९।२। तदधीते तद्वेद। पा० ४।२।५९। अङ्गिरस्-अण्। आङ्गिरसः सर्वज्ञस्य परमेश्वरस्य वेत्ता (ब्रह्म) वेदम् (तपः) ब्रह्मचर्यादिव्रतम्। ऐश्वर्यम्। अन्यत् पूर्ववत् ॥
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