अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 10/ मन्त्र 12
सूक्त - अथर्वाचार्यः
देवता - विराट्
छन्दः - आर्ची त्रिष्टुप्
सूक्तम् - विराट् सूक्त
ते कृ॒षिं च॑ स॒स्यं च॑ मनु॒ष्या॒ उप॑ जीवन्ति कृ॒ष्टरा॑धिरुपजीव॒नीयो॑ भवति॒ य ए॒वं वेद॑ ॥
स्वर सहित पद पाठते । कृ॒षिम् । च॒ । स॒त्यम् । च॒ । म॒नु॒ष्या᳡: । उप॑ । जी॒व॒न्ति॒ । कृ॒ष्टऽरा॑धि: । उ॒प॒ऽजी॒व॒नीय॑: । भ॒व॒ति॒ । य: । ए॒वम् । वेद॑ ॥१३.१२॥
स्वर रहित मन्त्र
ते कृषिं च सस्यं च मनुष्या उप जीवन्ति कृष्टराधिरुपजीवनीयो भवति य एवं वेद ॥
स्वर रहित पद पाठते । कृषिम् । च । सत्यम् । च । मनुष्या: । उप । जीवन्ति । कृष्टऽराधि: । उपऽजीवनीय: । भवति । य: । एवम् । वेद ॥१३.१२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 10;
पर्यायः » 4;
मन्त्र » 12
विषय - मनुष्यों द्वारा कृषि व इरा [अन्न] का दोहन सो
पदार्थ -
१.(सा उदक्रामत्) = वह विराट् उत्क्रान्त हुई। (सा मनुष्यान् आगच्छत्) = वह विचारपूर्वक कर्म करनेवालों को [मत्वा कर्माणि सीव्यति] प्राप्त हुई। (ताम्) = उसे (मनुष्याः उपाह्वयन्त) = मनुष्यों ने पुकारा कि (इरावति) = हे अन्नवाली! (एहि इति) = आओ तो। शासन-व्यवस्था के ठीक होने पर मनुष्य सब अन्नों को प्राप्त करने में समर्थ होते हैं। (तस्याः) = उस विराट का (वत्स:) = प्रिय-विचारपूर्वक कर्म करनेवाला मनुष्य (मनु:) = विचारशील व (वैवस्वतः) = ज्ञान की किरणोंवाला [सूर्यपुत्र] (आसीत्) = था। इस मनु-वैवस्वत की (पृथिवी पात्रम्) = पृथिवी ही पान थी-रक्षण-साधन थी। २. (ताम्) = उस विराट् को (पृथी) = शक्तियों का विस्तार करनेवाले (वैन्यः) = मेधावी पुरुष ने (अधोक्) = दुहा। (ते मनुष्या:) = वे विचारपूर्वक कर्म करनेवाले लोग (कृषिं च सस्यं च उपजीवन्ति) = कृषि व कृषि द्वारा उत्पन्न अन्न से अपनी जीवनयात्रा पूर्ण करते हैं। (यः एवं वेद) = जो इसप्रकार कृषि व अन्न के महत्त्व को समझ लेता है, वह (कृष्टराधिः) = कृषि को सिद्ध करनेवाला होता हुआ (उपजीवनीयः भवति) = जीवन-यात्रा निर्वहण में औरों का सहायक होता है।
भावार्थ -
विचारपूर्वक कर्मों को करनेवाले लोग विशिष्ट शासन-व्यवस्थावाले देश में कृषि द्वारा अन्न प्रास करते हुए जीवन-यात्रा को पूर्ण करते हैं। शक्तियों का विस्तार करनेवाले ये मेधावी बनते हैं। ये जीवन-यात्रा में औरों के लिए भी सहायक होते हैं।
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