अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 10/ मन्त्र 9
सूक्त - अथर्वाचार्यः
देवता - विराट्
छन्दः - चतुष्पदोष्णिक्
सूक्तम् - विराट् सूक्त
सोद॑क्राम॒त्सा म॑नु॒ष्या॒नाग॑च्छ॒त्तां म॑नु॒ष्या॒ उपा॑ह्वय॒न्तेरा॑व॒त्येहीति॑।
स्वर सहित पद पाठसा । उत् । अ॒क्रा॒म॒त् । सा । म॒नु॒ष्या॑न् । आ । अ॒ग॒च्छ॒त् । ताम् । म॒नु॒ष्या᳡: । उप॑ । अ॒ह्व॒य॒न्त॒ । इरा॑ऽवति । आ । इ॒हि॒ । इति ॥१३.९॥
स्वर रहित मन्त्र
सोदक्रामत्सा मनुष्यानागच्छत्तां मनुष्या उपाह्वयन्तेरावत्येहीति।
स्वर रहित पद पाठसा । उत् । अक्रामत् । सा । मनुष्यान् । आ । अगच्छत् । ताम् । मनुष्या: । उप । अह्वयन्त । इराऽवति । आ । इहि । इति ॥१३.९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 10;
पर्यायः » 4;
मन्त्र » 9
विषय - मनुष्यों द्वारा कृषि व इरा [अन्न] का दोहन सो
पदार्थ -
१.(सा उदक्रामत्) = वह विराट् उत्क्रान्त हुई। (सा मनुष्यान् आगच्छत्) = वह विचारपूर्वक कर्म करनेवालों को [मत्वा कर्माणि सीव्यति] प्राप्त हुई। (ताम्) = उसे (मनुष्याः उपाह्वयन्त) = मनुष्यों ने पुकारा कि (इरावति) = हे अन्नवाली! (एहि इति) = आओ तो। शासन-व्यवस्था के ठीक होने पर मनुष्य सब अन्नों को प्राप्त करने में समर्थ होते हैं। (तस्याः) = उस विराट का (वत्स:) = प्रिय-विचारपूर्वक कर्म करनेवाला मनुष्य (मनु:) = विचारशील व (वैवस्वतः) = ज्ञान की किरणोंवाला [सूर्यपुत्र] (आसीत्) = था। इस मनु-वैवस्वत की (पृथिवी पात्रम्) = पृथिवी ही पान थी-रक्षण-साधन थी। २. (ताम्) = उस विराट् को (पृथी) = शक्तियों का विस्तार करनेवाले (वैन्यः) = मेधावी पुरुष ने (अधोक्) = दुहा। (ते मनुष्या:) = वे विचारपूर्वक कर्म करनेवाले लोग (कृषिं च सस्यं च उपजीवन्ति) = कृषि व कृषि द्वारा उत्पन्न अन्न से अपनी जीवनयात्रा पूर्ण करते हैं। (यः एवं वेद) = जो इसप्रकार कृषि व अन्न के महत्त्व को समझ लेता है, वह (कृष्टराधिः) = कृषि को सिद्ध करनेवाला होता हुआ (उपजीवनीयः भवति) = जीवन-यात्रा निर्वहण में औरों का सहायक होता है।
भावार्थ -
विचारपूर्वक कर्मों को करनेवाले लोग विशिष्ट शासन-व्यवस्थावाले देश में कृषि द्वारा अन्न प्रास करते हुए जीवन-यात्रा को पूर्ण करते हैं। शक्तियों का विस्तार करनेवाले ये मेधावी बनते हैं। ये जीवन-यात्रा में औरों के लिए भी सहायक होते हैं।
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