अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 10/ मन्त्र 13
सूक्त - अथर्वाचार्यः
देवता - विराट्
छन्दः - चतुष्पदोष्णिक्
सूक्तम् - विराट् सूक्त
सोद॑क्राम॒त्सा स॑प्तऋ॒षीनाग॑च्छ॒त्तां स॑प्तऋ॒षय॒ उपा॑ह्वयन्त॒ ब्रह्म॑ण्व॒त्येहीति॑।
स्वर सहित पद पाठसा । उत् । अ॒क्रा॒म॒त् । सा । स॒प्त॒ऽऋ॒षीन् । आ । अ॒ग॒च्छ॒त् । ताम् । स॒प्त॒ऽऋ॒षय॑: । उप॑ । अ॒ह्व॒य॒न्त॒ । ब्रह्म॑ण्ऽवति । आ । इ॒हि॒ । इति॑ ॥१३.१३॥
स्वर रहित मन्त्र
सोदक्रामत्सा सप्तऋषीनागच्छत्तां सप्तऋषय उपाह्वयन्त ब्रह्मण्वत्येहीति।
स्वर रहित पद पाठसा । उत् । अक्रामत् । सा । सप्तऽऋषीन् । आ । अगच्छत् । ताम् । सप्तऽऋषय: । उप । अह्वयन्त । ब्रह्मण्ऽवति । आ । इहि । इति ॥१३.१३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 10;
पर्यायः » 4;
मन्त्र » 13
विषय - सप्तर्षियों द्वारा ब्रह्म व तप का दोहन
पदार्थ -
१. (सा) = वह विराट् (उदक्रामत्) = उत्क्रान्त हुई। (सा) = वह (सम ऋषीन्) = सात ऋषियों को प्राप्त हुई। मनुष्य के जीवन में ('सप्त ऋषयः प्रतिहिताः शरीरे') = सप्त ऋषि 'दो कान, दो नासिका छिद्र, दो आँखें व मुख' प्रभु द्वारा स्थापित किये गये हैं। इन (सप्तऋषय:) = सात ऋषियों ने (ताम्) = उस विराट् को (उपाह्वयन्त) = पुकारा कि हे (ब्रह्मण्यति एहि इति) = ज्ञानवाली वेदवाणि! तू आ तो। (तस्या:) = उस विराट का (वत्स:) = प्रिय यह व्यक्ति (सोमः) = सौम्य स्वभाव का तथा राजा-व्यवस्थित जीवनवाला (आसीत्) = हुआ। (छन्द:) = वेदवाणी के छन्द ही उसके (पात्रम्) = रक्षासाधन बनें। २. (ताम्) = उस विराट् को (आङ्गिरस:) = अङ्ग-प्रत्यङ्ग में रसवाले (बृहस्पति:) = ज्ञानी पुरुष ने (अधोक्) = दुहा। (ताम्) = उससे (ब्रह्म च तपः च अधोक) = ज्ञान और तप का ही दोहन किया। (सप्तऋषय:) = ये शरीरस्थ सप्तर्षि (तत्) = उस (ब्रह्म च तप: च) = ब्रह्म और तप को ही (उपजीवन्ति) = जीवन का आधार बनाते हैं। (यः एवं वेद) = जो इसप्रकार ब्रह्म और तप के महत्व को समझ लेता है, वह ब्रह्मवर्चसी ब्रह्मवर्चस्वाला व (उपजीवनीयः भवति) = जीवन-यात्रा में औरों को सहायता देनेवाला होता है।
भावार्थ -
राष्ट्र में शासन-व्यवस्था के ठीक होने पर शरीरस्थ सप्तर्षि वेदवाणी के द्वारा ज्ञान व तप का जीवन बनानेवाले होते हैं। यह ज्ञानी व तपस्वी व्यक्ति ब्रह्मवर्चस् प्राप्त करके औरों की जीवनयात्रा में सहायक होते हैं।
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