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अथर्ववेद > काण्ड 8 > सूक्त 10 > पर्यायः 4

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  • अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 10/ मन्त्र 15
    सूक्त - अथर्वाचार्यः देवता - विराट् छन्दः - विराड्गायत्री सूक्तम् - विराट् सूक्त

    तां बृह॒स्पति॑राङ्गिर॒सोधो॒क्तां ब्रह्म॑ च॒ तप॑श्चाधोक्।

    स्वर सहित पद पाठ

    ताम् । बृह॒स्पति॑: । आ॒ङ्गि॒र॒स: । अ॒धो॒क् । ताम् । ब्रह्म॑ । च॒ । तप॑: । च॒ । अ॒धो॒क् ॥१३.१५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तां बृहस्पतिराङ्गिरसोधोक्तां ब्रह्म च तपश्चाधोक्।

    स्वर रहित पद पाठ

    ताम् । बृहस्पति: । आङ्गिरस: । अधोक् । ताम् । ब्रह्म । च । तप: । च । अधोक् ॥१३.१५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 10; पर्यायः » 4; मन्त्र » 15

    पदार्थ -

    १. (सा) = वह विराट् (उदक्रामत्) = उत्क्रान्त हुई। (सा) = वह (सम ऋषीन्) = सात ऋषियों को प्राप्त हुई। मनुष्य के जीवन में ('सप्त ऋषयः प्रतिहिताः शरीरे') = सप्त ऋषि 'दो कान, दो नासिका छिद्र, दो आँखें व मुख' प्रभु द्वारा स्थापित किये गये हैं। इन (सप्तऋषय:) = सात ऋषियों ने (ताम्) = उस विराट् को (उपाह्वयन्त) = पुकारा कि हे (ब्रह्मण्यति एहि इति) = ज्ञानवाली वेदवाणि! तू आ तो। (तस्या:) = उस विराट का (वत्स:) = प्रिय यह व्यक्ति (सोमः) = सौम्य स्वभाव का तथा राजा-व्यवस्थित जीवनवाला (आसीत्) = हुआ। (छन्द:) = वेदवाणी के छन्द ही उसके (पात्रम्) = रक्षासाधन बनें। २. (ताम्) = उस विराट् को (आङ्गिरस:) = अङ्ग-प्रत्यङ्ग में रसवाले (बृहस्पति:) = ज्ञानी पुरुष ने (अधोक्) = दुहा। (ताम्) = उससे (ब्रह्म च तपः च अधोक) = ज्ञान और तप का ही दोहन किया। (सप्तऋषय:) = ये शरीरस्थ सप्तर्षि (तत्) = उस (ब्रह्म च तप: च) = ब्रह्म और तप को ही (उपजीवन्ति) = जीवन का आधार बनाते हैं। (यः एवं वेद) = जो इसप्रकार ब्रह्म और तप के महत्व को समझ लेता है, वह ब्रह्मवर्चसी ब्रह्मवर्चस्वाला व (उपजीवनीयः भवति) = जीवन-यात्रा में औरों को सहायता देनेवाला होता है।

    भावार्थ -

    राष्ट्र में शासन-व्यवस्था के ठीक होने पर शरीरस्थ सप्तर्षि वेदवाणी के द्वारा ज्ञान व तप का जीवन बनानेवाले होते हैं। यह ज्ञानी व तपस्वी व्यक्ति ब्रह्मवर्चस् प्राप्त करके औरों की जीवनयात्रा में सहायक होते हैं।

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