अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 10/ मन्त्र 8
सूक्त - अथर्वाचार्यः
देवता - विराट्
छन्दः - आर्च्यनुष्टुप्
सूक्तम् - विराट् सूक्त
तां स्व॒धां पि॒तर॒ उप॑ जीवन्त्युपजीव॒नीयो॑ भवति॒ य ए॒वं वेद॑ ॥
स्वर सहित पद पाठताम् । स्व॒धाम् । पि॒तर॑: । उप॑ । जी॒व॒न्ति॒ । उ॒प॒ऽजी॒व॒नीय॑: । भ॒व॒ति॒ । य: । ए॒वम् । वेद॑ ॥१३.८॥
स्वर रहित मन्त्र
तां स्वधां पितर उप जीवन्त्युपजीवनीयो भवति य एवं वेद ॥
स्वर रहित पद पाठताम् । स्वधाम् । पितर: । उप । जीवन्ति । उपऽजीवनीय: । भवति । य: । एवम् । वेद ॥१३.८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 10;
पर्यायः » 4;
मन्त्र » 8
विषय - पितरों द्वारा स्वधा-दोहन
पदार्थ -
१. (सा उदक्रामत्) = वह विराट् उत्क्रान्त हुई। (सा) = वह (पितृन्) = रक्षणात्मक कार्यों में प्रवृत्त लोगों को प्राप्त हुई। (पितरः तां उपाह्वयन्त) = पितरों ने उसे पुकारा कि (स्वधे एहि इति) = हे आत्मधारणशक्ते! आओ तो। शासन-व्यवस्था के ठीक होने पर ही रक्षणात्मक कार्य ठीक से सम्पन्न हो सकते हैं। ये रक्षणात्मक कार्यों में संलग्न व्यक्ति आत्मधारणशक्तिवाले होते हैं। इन कार्यों को करते हुए वे यही समझते हैं कि इन कार्यों द्वारा वे औरों का नहीं अपितु अपना ही धारण कर रहे हैं। (तस्या:) = उस विराट् का (वत्स:) = प्रिय यह रक्षणात्मक कार्य में प्रवृत्त व्यक्ति (यमः) = अपनी इन्द्रियों का नियमन करनेवाला व राजा-दीप्त जीवनवाला (आसीत्) = होता है। ऐसा बनकर ही तो यह रक्षणात्मक कार्यों को कर पाता है। उसका (पात्रम्) = यह रक्षणीय शरीर (रजतपात्रम्) = प्रजा का रञ्जन करनेवाला शरीर होता है। वह शरीर को स्वस्थ रखते हुआ प्रजा के रञ्जन में प्रवृत्त होता है। २. (ताम्) = उस विराट को (मार्त्यवः) = [तदधीते तद् वेद] मृत्यु को समझनेवाले-मृत्यु को न भूलनेवाले और इसप्रकार (अन्तक:) = वासनाओं का अन्त करनेवाले इस पुरुष ने (अधोक्) = दोहन किया। (ताम्) = उस विराट् से इसने (स्वधाम् एव अधोक्) = आत्मधारण शक्ति का ही दोहन किया। (पितर:) = ये रक्षण करनेवाले लोग (तां स्वधा उपजीवन्ति) = उस आत्मधारणशक्ति के द्वारा अपनी जीवन-यात्रा को सुन्दरता से पूर्ण करते हैं और (यः एवं वेद) = जो इसप्रकार स्व-धा के महत्व को समझ लेता है वह (उपजीवनीयः भवति) = औरों की जीवन यात्रा की पूर्ति में सहायक होता है।
भावार्थ -
रक्षणात्मक कार्यों में प्रवृत्त लोग, इस विशिष्ट दीसिवाली शासन-व्यवस्था से युक्त देश में, आत्मधारणशक्ति का उपार्जन करते हैं। ये संयमी व दीप्त होते हैं, अपने शरीर को प्रजा रजन के कार्यों में आहुत करते हैं। ये मृत्यु को न भूलकर वासनाओं का अन्त करते हैं और आत्मधारण-शक्तिवाले होते हैं। स्वयं सुन्दर जीवन बिताते हुए औरों की सुन्दर जीवन-यात्रा में भी सहायक होते हैं।
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