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अथर्ववेद > काण्ड 1 > सूक्त 27

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  • अथर्ववेद - काण्ड 1/ सूक्त 27/ मन्त्र 1
    सूक्त - अथर्वा देवता - चन्द्रमाः, इन्द्राणी छन्दः - पथ्यापङ्क्तिः सूक्तम् - स्वस्त्ययन सूक्त

    अ॒मूः पा॒रे पृ॑दा॒क्व॑स्त्रिष॒प्ता निर्ज॑रायवः। तासा॑म्ज॒रायु॑भिर्व॒यम॒क्ष्या॒वपि॑ व्ययामस्यघा॒योः प॑रिप॒न्थिनः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒मू: । पा॒रे । पृ॒दा॒क: । त्रि॒ऽस॒प्ता: । नि:ऽज॑रायव: ।तासा॑म् । ज॒रायु॑ऽभि: । व॒यम् । अ॒क्ष्यौ । अपि॑ । व्य॒या॒म॒सि॒ । अ॒घ॒ऽयो: । प॒रि॒ऽप॒न्थिन॑: ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अमूः पारे पृदाक्वस्त्रिषप्ता निर्जरायवः। तासाम्जरायुभिर्वयमक्ष्यावपि व्ययामस्यघायोः परिपन्थिनः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अमू: । पारे । पृदाक: । त्रिऽसप्ता: । नि:ऽजरायव: ।तासाम् । जरायुऽभि: । वयम् । अक्ष्यौ । अपि । व्ययामसि । अघऽयो: । परिऽपन्थिन: ॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 1; सूक्त » 27; मन्त्र » 1

    भावार्थ -
    (अमूः) ये (पारे) नदी के पार ( त्रिसप्ताः ) नदी तरकर पार गये हुए और दूरतक फैले हुए (पृदाकूः) सर्प समान भयंकर सेनाएं हैं जिन्होंने ( निर्जरायवः ) कचुली के समान अपने २ कवचें उतारे हुए हैं (तासां) उनके ( जरायुभिः ) कवचों पर छापा मारकर उन कवचों द्वारा ( वयम् ) हम लोग ( अघायोः ) हमारी हत्या करने की चेष्टा में यत्नवान् ( परिपन्थिनः ) शत्रु के ( अक्ष्यौ ) आंखों को ( अपि वि अयामसि ) हम धूल डालते हैं, उन्हें चकित कर देते हैं।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - स्वस्त्ययनकामोऽथर्वा ऋषिः। चन्द्रमा इन्द्राग्नी च देवता। १ पथ्यापंक्तिः, २, ३, ४ अनुष्टुभः। चतुर्ऋचं सूक्तम्॥

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